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________________ अम आश्वासः ३८५ स्थितिकरणोपगूलनवात्सल्यप्रभावनोपरवितोरसवसपर्यासु१ अनेकत्रिदशविशेषनिर्मापितभूमिकासु सुकृतिशेतःप्रासादपरम्परामु कृतकोगविहारमपि पानसर्गानहालिम पनि प्रभाविदेहवर्ष घरचक्रवर्तिपूजामणि"कुलदैवतं अमरेश्वरमतिदेवताक्तं सकल्पयल्लीपल्लवं अम्बरघरलोकहक्कमण्डनं अपवर्गपुरप्रवेशागण्यपुष्पपप्यात्समाकरणसरयंकारं अनुल्लङ्थ्यकुरघधनघटावुदिनेष्यपि जन्तुषु भ्योतिलोकादितिगर्तपातनतमस्कापदभेदनमामनन्ति मनीषिणः, सस्य संसारपावपोकछवप्रथमकारणस्य सकलमलविवामिनः पश्चपरमेष्ठिप्रसरस्य भगषतः सम्पादनरल स्थाष्टतयोििष्ट करोमीति स्वाहा । अपि च । मुक्ति मीलतामूलं युक्तिश्रीवल्लरोवनम् । भक्तितोऽहामि सम्यक्त्वं 'भक्तिचिन्तामणिप्रवम् ॥३२॥ मानवों को ऐसी चित्तरूपी महलों की पङ्क्तियों में क्रोड़ा के लिए विहार किया है, जो कि जिन, जिनागम, जिनधर्म और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे हुए जीवादि सात तत्वों के अयोग व्यवच्छेद व अन्ययोग व्यवच्छेद ( जिनेन्द्र देव ही हैं व जिनेन्द्र हो देव है, इत्यादि क्रमशः अन्य विशेषणों की व्यावृत्ति व अन्य विशेषयों की व्यावृत्ति ) की आस्था से वृद्धिगत हुई सदश परिणाम-स्थानरूपी आधार (भूमि या नीव वाली हैं। जिनमें से शङ्का, आकांक्षा, विचिकित्सा ( ग्लानि ) व मून दृष्टिरूपी शल्ये (कोले) निकाल कर फेंक दी गई हैं। अर्थात-जिसप्रकार महल की भूमि-शोधन में हड्डी-आदि निकालकर फेंक दी जाती हैं उसीप्रकार सम्यग्दष्टियों द्वारा भी चित्त के शोधन में उक्त शल्ये निकाल कर फेंक दो जाती हैं। जो प्रशम, रविंग, अनुकम्पा, व मास्तिस्य रूपी स्तम्भों द्वारा धारण की गई है। स्थितिकरण, उपगूहुन, वात्सल्य व प्रमाबना द्वारा जिनमें उत्सवों की पूजा की गई है । अर्थात्-जिस प्रकार महल-रचना में मध्य मध्यमें पूजा की जाती है उसोप्रकार सम्यक्त्व की भी उक्त अङ्गों द्वारा पूजा की जाती है और जिनकी भूमिकाएँ ( अवस्थाएँ व पक्षान्तर में तल) दो प्रकार (निसर्गज व अधिगमज ), तीन प्रकार (भोपशमिक, क्षायोपमिक व क्षायिक ) व दशप्रकार (आज्ञा व मार्ग-आदि) से निर्माण कराई गई हैं, ऐसा होकर के भी जो स्वभावतः महामुनियों के मनरूपी समुद्र में प्रसिद्ध हैं। जो समस्त भरत, ऐरावत व विदेहक्षेत्रों व कुलाचलों के चक्रवतियों का चूड़ामणि ( गिरोरल ) और कुल देवता है। जो देवेन्द्रों को बुद्धिरूपी देवी के कण-आभूषण के लिए कल्पलता का पल्लद है। जो विद्याधर-समूह के हृदय का अद्वितीय आभूषण है। मोक्षनगर में प्रवेश करने के लिए असंख्यात पुण्यरूपी पण्प ( खरोदने लायक वस्तु ) को अधीन करने के लिए जो सत्यंकार (व्यवस्था का अनुल्ल छन-त्रयाने का धन) है । अर्थात्-जिस प्रकार पेशगी दिये हुए धन में खरीदने लायक वस्तु स्वरीदी जाती है उसी प्रकार सम्यक्त्व रूपो बयाने के धन से भी मोक्षनगर में प्रवेश करानेवाला असंख्यात पुण्य खरीदा जा सकता है। जिसे शास्त्र. वेत्ता विद्वान् अटल ( अबश्य भोगने योग्य ) महापाप रूपो मेघों की घटा से दुर्दिन-सरोखे ( ग्रस्त हुए) जोबों के भी ज्योतिर्लोक-आदि गतिरूपो गड्ढों में गिरानेवाले मिथ्यात्वरूपो अन्धकार के पटल का मेदन करनेवाला मानते हैं, अर्थात् पारी से पापी जीव को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर प्रथम नरक के सिवाय शेष नरकों में और भवनत्रिक व व्यन्तर-आदि में जन्म लेना नहीं पड़ता। मैं ऐसे सम्पग्दर्शन की भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ, जो मुक्तिलक्ष्मी रूपो लता को जड़ है और जो १. प्रासादे क्रियमाणे मध्ये मन्यै पूजा कियते । २. अनेको विशेषों द्विविधतया, योविशेषाः विविधतया, दश विशेषाः दशविषतया भूमिका अवस्था तलं च। ३. प्रसिद्ध । ४. कुलपर्वत । ५. शिरोरत्नानामुपरि स्थितं । ६. कर्णावतंस ( कर्णपुर)। ७. सत्यंकार व्यवस्थानुल्लङ्घनम्, धनसार्थ इति लोकभापा। ८, जर्स । ९. भक्तिरेव चिन्तामणिः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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