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चतुसादास आहार; साघुमन विनिन्वितो मधुमासाविरिति कर्य चे मृगयोपयोगानन्दं शबरन्य निन्दितावादिधाणेन ।
माता--(स्वगलम् ।) अहो, मघीये सुते सांप्रतं जनजनवात इव लग्नः प्रतिभासते । विषमवच स्खल भवस्वयं माना, यस्माविरं समयान्तरोपरचितप्रतीकाराग्यप्यन्येषां मनांसि प्रायेण पश्यतोहर इष हरत्याहंतो लोकः । तवासनावासितं हि चेतो न ब्राह्मणापि शक्यतेऽन्ययाफर्तम् । बुश्चिकित्स्यश्व खलु करिणा कूटपाफल इस प्राणिनां क्षपणकोपमोसश्चित्तस्याभिनिवेशः। कथितं च मेऽपरेखुरेव शिवभूतेः पुरोहित स्थात्मजेन शिवशर्मणा, यथा-अम्बावेषि, राजान भ्रमणिकायो गतस्तरमूलनिवासिनमवाससमिन्द्राचितभरणनामधयमवासीत् । तदर्शननिधारणे च कृशकापेयमपि मामवमत्म तेन सह महतो बेलामिति प्रश्नोत्तरपरम्पराप्रवृत्तमुवन्तमकार्षोत्
को भगवनिह धर्मा यन्त्र बया भूप सर्वसरवानाम् । नो नामाप्तो यत्र हि न सन्ति सांसारिका दोषाः ।। ६९ ॥
भीलों के समूह की निन्दा करते हुए 'चाण' नाम के महाकवि ने यह किस प्रकार कहा ? फिर यशोधर महाराज की माता ( चन्द्रमति ) अपने मन में निम्न प्रकार चिन्तवन करती है आश्चर्य है कि इस समय मेरे पुत्र में जैन लोगों को वासना संगत हुई सरीखी प्रतिभासित होती है। निश्चय से यह जनलोक असाध्य होता है। क्योंकि यह चौर-
सखा दुसरों के वित्तों को, जिनके प्रतीकार (प्रतिक्रिया या चिकित्सा) दूसरे शास्त्रों से रचे गए हैं, अर्थात्-जिनकी वासना दूसरे शास्त्रों से रची गई है, प्रायः करके हरण कर लेता है । अर्थात्उनमें अपनी वासना लगा देता है ( अपने धर्म में ले आता है)। जन लोक की भावना से वासित हुए मन को ब्रह्मा भी अन्यथा करने को समर्थ नहीं है। दिगम्बर मनि द्वारा प्राप्त कराया गया प्राणियों के मन का अभिप्राय, उस प्रकार चिकित्सा करने के अयोग्य है अथवा प्रतीकार करने के अयोग्य है जिस प्रकार हाथियों का कूटपाकल ( सद्यः प्राणहर ज्वर ) चिकित्सा करने के अयोग्य होता है। परसों शिवभूति पुरोहित के पुत्र शिवशर्मा ने मुझ से कहा था। है माता! वन क्रीडाथं गए हुए यशोधर महाराज ने आज वृक्ष की मूल में बैठे हुए 'इन्दाचितचरण' नाम में दिगम्बर मुनि को देखा। उन्होंने उसके साथ गोप्ठी निवारण में चञ्चलता करनेवाले मुझे तिरस्कृत कारके उस मुनि के साथ विशेष समय तक इसप्रकार का वार्तालाप किया, जो प्रश्न-परम्परा व उत्तर-परम्परा में प्रवृत्त हुआ था, अर्थात्-मेरे राजा सा० ( यशोधर महाराज ) ने प्रश्न-परम्परा को और प्रस्तुत मुनि ने उत्तर-परम्परा दी।
अब यशोधर महाराज व उक्त 'इन्द्राचितचरण' नामके मुनि के मध्य हुई प्रश्नोत्तरमाला का निरूपण करते हैं
राजा है भगवन् ! इस संसार में धर्म का क्या स्वरूप है ? ऋषि-हे राजन् ! जिस धर्म में समस्त प्राणियों की दया है, उसे धर्म कहते हैं। राजा-हे ऋषिराज ! आम' ( ईश्वर ) का क्या स्वरूपा है ?
ऋषि-हे राजन् ! जिसमें क्षुधा व पिपासा-आदि संसार में होनेवाले अठारह दोष नहीं हैं वही आम है ॥६॥
राजा–आप्त के जानने का क्या उपाय है ? ऋषि-हे राजन् ! पूर्वापर के विरोध से रहित निर्दोष शास्त्र हो आप्त के जानने का उपाय है। राजा हे भगवन् ! तपश्चर्या-दीक्षा--का क्या स्वरूप है ?