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________________ ३३४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 1 काशविभूतिः श्रीभूति रायतयं वण्यं क्रमेणातितिक्षमाणः ' 'पर्याप्त समस्तत्र विणः किमितिमा रपरिषत्परिकल्पित ४. प्रमाष्टिः - कृतकलशकपाल" मालावासिक "सृष्टिस्सृष्ट" सरावमपरिष्कृतिः पुराववालवालेय कमारोहल सनिकाएं निष्कासितः पापविपाकोपपन्ना प्रतिष्ठ कुष्ठो दुष्परिणाम कनिष्ठ: 13 शुभाशयारण्य विनाशमहति हिरण्यरेतसि तनुविसर्गात रौद्रसपायेऽन्ववाये प्रादुर्भूय चिरायापराध्य १७ च प्राणिषु मातजीवितावधि १८ :प्रधाननिधिर्वभूव । भवति चात्र श्लोक: १६ श्रीभूतः यदोषेण पत्युः प्राप्य पराभवम् । रोहित' 'वप्रवेशेन वंशेर: २० सनयोगतः ॥ १०६ ॥ इत्युपासकरध्ययने स्तेयफलप्रलपनो नाम सप्तविंशतितमः कल्पः । I अत्युक्तिमन्यवोपोमिसम्योक्ति १५ वयेत् । भाषेत वचनं नित्यमभिजातं हितं मितम् ||१०७ ।। तत्सत्यमपि गोवाच्यं परस्परपर विपक्षये । अश्मन्ते येन वा स्वस्य व्यापदश्च दुरास्पवाः ।। १०८ ।। I ( मुक्के ) सहन करना चाहिए। नहीं तो निस्सन्देह तेरा रामस्त घन अपहरण किया जायगा ।' मृत्यु से अपनी रक्षा की विभूति माननेवाला श्रीभूति जब शुरू के दो राजदण्ड क्रमशः सहन न कर सका तब राजा द्वारा उसका समस्त धन ग्रहण कर लिया गया और उसके शरीर पर कीड़ों से कर्बुरित कीचड़ से विलेपन करके घड़ों की खप्पर श्रेणी की माला पहिना कर उसे जूठे सकोरों की माला से अलङ्कृत किया गया। चाद में बड़े गधे पर चढ़ा कर उसे तिरस्कार पूर्वक नगर से निकाल दिया | पापकर्म के उदय से उसे चारों मोर शोभमान कोढ़ हो गया | खोटे परिणामों से वह जघन्य कोटि का था । इसलिए उसने उसके शुभ परिणामरूप वन को भस्म करनेवाली अग्नि में जलकर शरीर त्याग किया— मर गया और उत्पन्न हुए रोद्र ध्यान के कारण साँपों के वंश में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने अनेक प्राणियों को हंसा और आयु पूरी करके नरकवासों हुआप्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है--श्रीभूति नाम का पुरोहित घोरो करने के अपराध से राजा द्वारा तिरस्कृत हुआ और अग्नि में जलकर मर गया। पश्चात् सर्पयोनि में उत्पन्न होकर नरकगामी हुआ ।। १०६ ।। इस प्रकार उपासकाध्ययन में चोरों का फल बतलानेवाला सत्ताईसव कल्प समाप्त हुआ । atra सत्यव्रत का निरूपण करते हैं सत्याणुव्रत सत्यवादी को किसी बात को बढ़ाकर नहीं कहते हुए दूसरों के दोष नहीं कहना चाहिए और असम्य वचन बोलने का त्याग करना चाहिए। उसे सदा कुलीनता प्रकट करनेवाले, हितकारक व परिमित वचन बोलना चाहिए ।। १०७ सत्यवक्ता को ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए, जिससे दूसरे प्राणियों पर विपत्ति ( पोड़ा या मरण ) १. असहमान: । २. गृहीत उद्दालित । ३. कृमिभिः विचित्रकम: टिं० ख० पं० तु किमीरः करः परिवत् कर्दमः । ४ परिविरचितविलेपन टि० ० ० तु प्रमाष्टि विलेपनं । ५. कुम्मस्य वरश्रेणी । ६. बद्धरचना । ७. उच्छिष्ट । ८. माला । ९. परिष्कृतः अलङ्कृतः । १०. नगरात् । ११. १३. जघन्यः । १४. अग्लो । १५. सर्पवंशे । १६. उत्पद्य । १७. प्राणिषु अपराधं कृत्वा । १९. अग्नि । २०. सर्पः । २१. 'असत्योति च' इति क० २२. 'अभिजातस्तु कुलजे बुत्रे चोपचारात्' टि० ख०, 'अभिजातं शुभकुलोवुभवं वचनं' टि०० बृहत्रासभं । १२ अशोममान । १८. सर्पोऽपि । सुकुमारे न्याय्ये ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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