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________________ अष्टम आश्वासः : पयोभप्रायं "पर्युषितं मतम् । गन्धवर्णरस भ्रष्टमन्यत्सर्वं विनिश्वितम् ॥ ३२५ ॥ बालग्लान' तपःक्षीणवृद्ध व्याधिसमन्वितान् । मुनीनुपचरेनित्यं यथा ते स्युस्तपः क्षमाः ।। ३२६ । "ज्ञानं" पारिप्लवमसंयमम् । वाक्पादम्य विशेषेण वनपेड्रोजन ॥२२७।। अभक्तानां कामतानां ससु न भुञ्जीत सथा साग्यकारुण्यकारिणाम् ।। ३२८ ॥ नाहरन्ति महासत्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पिताः । किं नु ते वैन्यकारण्य संकल्पोचितवृत्तयः ॥ ३२९॥ जो आचार शास्त्र से व प्रकृति से विरुद्ध है तथा जो ऋतु के प्रतिकूल है ।। ३२४ ॥ दही, घी व दूध से सिद्ध हुआ आहार बासा होनेपर भी पात्रों के देने के लिए अभीष्ट है किन्तु जिनका गन्ध, रूप व स्वाद बदल गया है, वह सब आहार निन्दित है, अर्थात् मुनि की देने योग्य नहीं है ।। ३२५ ॥ साधु-सेवा - विवेकी श्रावक को ऐसे मुनियों को सदा सेवा करनी चाहिए, जिससे वे समर्थ हो सकेँ, जो अल्प उम्र वाले हैं, जो रोगों से पीड़ित हैं, जो तप से दुर्बल हैं, जो वयोवृद्ध ( जां व्याधियों से पीड़ित हैं ।। ३२६ ।। ૪૪૨ तप करने में ) है और भोजन की वेला में स्थाज्य दुर्गुण - भोजन की वेला में कद, अभिमान, निरादर, चित्त को चञ्चलता, असंयम और कर्कश बचनों को विशेषरूप से छोड़ना चाहिए। क्योंकि इनसे मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है || ३२७ ॥ किनके गृहों में साधु-वर्ग आहार ग्रहण न करे ? जो साधुओं के म पढ़ी है, जो ना भक्तिपूर्वक दान नहीं देते ! जो अत्यन्त कृपण हैं, जो व्रत-रहित (अहिंसा आदि वर्षो को न पालनेवाले ) हैं, जो अपनी दीनता प्रकट करते हैं और करुणा उत्पन्न करनेवाले हैं । अर्थात्--—ज्ञो करुणा-बुद्धिसे दान देते हैं, अर्थात् जो यह कहते हैं कि 'यह मुनि दया का पात्र है इसे आहार देना चाहिए। उनके गृहों पर साधु को आहार नहीं लेना चाहिए ।। ३२८ ।। [ अब साधु दीन व दयापात्र नहीं होते, इसका समर्थन करते हूँ - ] वे साधु महासत्वशाली-धीर वीर होते हैं और चित्त से भी बड़े दयालु होते हैं, अर्थात् बे दुःखी ब अनुपात करनेवाले को देखकर आहार में अन्तराय करते हैं, इसलिए वे अपनी दीनता प्रकट करनेवालों के गृहों पर और मुनियों को दयापात्र कहनेवालों के गृहों पर आहार नहीं करते, क्योंकि जब वे दोनता व करुणा के संकल्प मात्र से उचित वृत्तिवाल, अर्थात् - दीन व दयापात्र को देखकर आहार ग्रहण में अन्तराय करनेवाले होते हैं तब निस्सन्देह क्या वे दीन व दयापात्र कहनेवालों के गृहों पर आहार करते हैं ? अपितु नहीं करते || ३२९ ।। धर्मरत्नाकर। ० १२४ । आहरति ? अपि तु न । ५७. १. वासी । २. अभीष्टं दातु । ३. रुजादिविलारीरः । ४. कपटत्वं । ५. निराधरः । ६. 'चंचल' टि० ख०, 'पारिप्लवं चपलता' या पं० । ७. कदर्य होन कोना सकिपचानगिपचाः कृपणक्षुल्लव-ल्लीवक्षुद्रा एकार्थबाचकाः ' टिं० ख०, 'यां भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति सः ।। ९ ।। ' नीतिवाक्यामृत अर्थसमु० पृ० ४७ 'कादर्याः कुधाः पश० पं *. 'असम्मताभक्तकदर्थमत्यंकारुण्यवैन्यातिशयान्त्रितानाम् । एषां निवासेषु हि साधुवर्गः परानुकम्पादितधीनं भुङ्क्ते ।। ३९ ।। ८. दुःखितं जपावा दृष्ट्वा ये मुनयोऽन्तरायं कुर्वन्ति । ९. वृत्तयः सन्तः कि
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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