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________________ चतुर्थ आश्वासः सन्तर्पणाथ द्विजदेवतानां पुष्टचर्यमङ्गस्य च सन्त्युषायाः । अन्येऽपि लोफे बहवः प्रशस्ताः सन्तः कुतः पापमिहापरन्ति ॥५५॥ शुत्रशोणितसंभूसमशुचीनां निकेतनम् । मांसं चत्प्रीण येद्देवानेत व्याघ्रानुपास्महे ।। ६० ।। मिथ्या चायं प्रपादः पशूपहारेण वेवतास्तुष्यन्तीति । हताः कुपाणेन बनेऽपि जन्तवो बाडं नियम्से गलपोडनाच्च । अवन्ति चतास्वयमेव देव्यो व्याघ्राः स्सवाहाः परमात्र सन्तु ॥६॥ कृत्वा मिषं देवमयं हि लोको मये च मांसे घ रति करोति । एवं न चेषदुर्गतिसंगतिः स्माष्कर्मणां कोऽपर एव मार्गः ॥६॥ यदि च हिसैव परमार्थ तो भवति धर्मः कथं तहि मृगयापाः पापपिरिति रूतिः, मांसस्य च पिषायानयनम्, सत्संस्कर्तुंगहावहिर्वासः, रावणशाक इति नामान्तरण्यपवेषः, पर्ववियप्तेषु वर्णन च यान्ति पारोमाणि पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहभागि पच्यन्ते पशुपातकाः ।। ६३ ॥ इति कमियं पौराणिको श्रुतिः । दूसरे भी बहुत से प्रास्त उपाय हैं तब हे माता! सज्जन पुरुष इस लोक में किस कारण से हिंसादि पापकर्म करते हैं ? ॥५॥ हे माता! मांस, जो कि शुक्र ( वीर्य ) व शोणित ( रुधिर ) से उत्पन्न हुआ है एवं विष्ठादि का स्थान है, यदि देवताओं को सन्तुष्ट करता है, तो आप लोग आइए, हम व्यानों ( चीता या वाघों) की उपासना करते हैं, क्योंकि वे भी मांस से सन्तुष्ट होते हैं ॥६०11 'पशुओं को बलि करने से देवता सन्तुष्ट होते हैं। यह कथन असत्य है । हे माता ! पशु-आदि प्राणी वन व नगर में तलवार से मारे हुए विशेषरूप से मरते हैं एवं गला-मरोड़ने से भी मरते हैं। कुलदेवता-आदि इन मरे हुए पशुओं का स्वयं मक्षपा करते हैं। अर्थात्--जब ये हम लोगों से दान-ग्रहण करने में कुछ अपेक्षा करते हैं तब तो निश्चय से इस संसार में व्यान हो स्तुति करने योग्य होवें, क्योंकि व्याघ्रादि हिंसक जन्तु तो पशुबों को मारकर स्वयं भक्षण करते हैं और देवता तो हम लोगों को प्रेरित करके मरण कराकर बाद में खाते हैं, अतः देवता स्तुति-योग्य नहीं है ।।६१।। यह पापी मनुष्य, निश्चय से देवसा का बहाना करके मद्यपान व मांस भक्षण में अनुराग करता है। यदि इस प्रकार का देवता का बहाना न होता तो पापियों को दूसरा कौन सा दुर्गति ( नरकादिगति ) का मार्ग होता? क्योंकि यहीं तो-देवता का मिष हो–पापियों का दुर्गतिमार्ग है ।।६।। हे माता! यदि प्राणियों का वध करना ही निश्चय से धर्म है तो शिकार की 'पापधि' नाम से प्रसिद्धि क्यों है ? और मांस को 'पिधायआनयन' ( ढक करके लाने लायक ) नाम से प्रसिद्धि किस प्रकार से है ? एवं मांस पकानेवाले का 'गृहाबहिर्वास' ( घर से बाहिर निवास करना), तथा मांस का 'रावण शाक' इस प्रकार का दूसरा नाम-कथन किस प्रकार से है ? एवं अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या व एकादशी-आदि पर्व दिनों में मांस का त्याग किस प्रकार से है ? हे युधिष्ठिर महाराज ! जितने पशुओं के रोग पशु-शरीरों में वर्तमान हैं उतने हजारों वर्ष पर्यन्त पशुघातक नरका में पकते हैं ॥६।। इस प्रकार की यह महाभारत शास्त्र की श्रुति किस प्रकार से है ? प्राणों के घात से निवृत्त होता, अर्थात् समस्त प्राणियों की रक्षा करना, दूसरों के धन का अपहरण करने का जोवन पर्यन्त नियम करना, मिथ्या भाषण का त्याग, अर्थात्-हित, मित व प्रिय वचन बोलना, मुनियों या दूसरे अतिथियों को आहार-वेला में अपनी शक्ति के अनुसार दान देना, पर पुरुषों की युवतिजनों से मौन भाव, अर्थात्-दूसरे को स्त्रियों को प्रशंसा न करना-परस्त्रियों के प्रति मातृ-भगिनी-माव एवं लोभरूपी जल
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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