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यशस्तिलकचम्मूकाव्ये च नपतयः कामक्रोषाभ्यामज्ञानेन वा पर्थव शुभमशभं धा कमरिमन्ते तयेव जानपदा अपि । श्रूयते हि-बङ्गीमण्डले नपतिदोषान्भूदेवेवासवोपयोगा, पारसीकेषु स्वसवित्रीसंपोगः, सिंहलेषु च विश्वामित्रसृष्टिप्रयोग इति । ततश्च । यथैव पुण्यस्य मुकर्मभाजा पष्ठांशभागी नृपतिः सुवृतः । तथैव पापस्य कुकर्ममाजा षष्ठांशभागी नुपतिः कुवृत्तः ॥ ५४ ।।
अपि । यः शास्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्याद्यः कण्टको वा निजमण्डलस्य ।
अस्त्राणि तत्रैव भूपाः क्षिपन्ति न बीनकानीनशुभाशयेषु ॥ ५५ ॥ तन्मातः, अहमैहिकामुधिकरिमानपत्रपस्तेषु प्राणिषु कथं नाम अस्त्रं प्रमोजयामि । कि घ । न कुर्वीत स्वयं हिंसा प्रवृत्ती च निवारयेत् । जीवितं अलमारोग्यं वद्वान्महीपतिः ।। ५६ ॥ यो दद्यात्काञ्चनं मे कृत्स्ना चापि वसुंधराम् । एकस्य जीवितं दद्यात्फलेन म समं भवेत् ॥ ५७ ॥ पथात्मनि शरीरस्य दुःखं नेच्छन्ति जन्तवः । तथा यदि परस्यापि न दुःखं तेषु जायते ।। ५८ ॥
इति लोकत्रयं गतवत्येव विने हिरण्यगर्भस्य मन्त्रिणः सुतेन नीतिगृहस्पतिना मामष्यापितवती भवरमेव । कथं नाम विस्मृता । विधेयमेव चाशुभमपि कर्म । को दोषो पति हन्यमानस्येवात्मनो न भवेयुः सुलम्यान्यापति विम्भितानि। व अज्ञान से जिसप्रकार पुण्य या पाप आरम्भ करते हैं उसीप्रकार प्रजाजन भी आरम्भ कर देते हैं । उक्त बात का समर्थन दृष्टान्त-माला द्वारा करते हैं-निश्चय से सुना जाता है कि रत्मपुर नाम के नगर में राजा के दोष ( मद्यपान ) से ब्राह्मणों में मद्यपान की प्रवृत्ति हुई एवं राजा के दोष से राश्वान देशों में अपनी माता के साथ संयोग प्रवृत्त हुआ । राजा के दोष से सिंहल देशों में वर्ण-सङ्करता प्रवृत्त हुई सुनी जाती है। अत:
जिसप्रकार सदाचारी राजा पुण्यकर्म करनेवाले लोगों के पुण्य के छठे अंश का भोगनेवाला होता है उसीप्रकार दुराचारी राजा पापी लोगों के पार के छठे अंश का भोगनेवाला होता है ॥५४॥ तथा च । ओ शत्रु युद्धभूमि पर शस्त्र धारण किये हुए है अथवा जो अपने देश का कांटा है, अर्थात्---जो अपने देश पर आक्रमण करने को उद्यत है, उसी शत्रु पर राजा लोग शस्त्र प्रहार करते हैं, न कि दुर्बल, प्रजा पर उपद्रव-आदि न करनेवाले और साधुजनों के ऊपर शस्त्र प्रहार करते हैं ||५५।। अतः हे माता! में इस लोक व परलोक के आचरण में निर्लज्ज होता हुआ किसप्रकार उन दोन-आदि निरपराध प्राणियों पर खड्ग-आदि शस्त्र चलाऊँ ?
हे माता ! में और कुछ विशेष कहता हूँ
राजा दीर्घायु, शारीरिक सामर्थ्य व निरोगता की निरन्तर अभिलाषा करता हुमा स्वयं प्राणियों का घात न करे और दूसरों द्वारा किये हुए प्राणिघात को रोके ॥५६॥ जो पुरुष सुमेरु पर्वत प्रमाण सुवर्णदान करता है और समस्त पृथिवी का दान करता है। एवं जो एक जीव के लिए अभयदान ( रक्षा ) देता है, वह पुरुष फल से समान नहीं है। अर्थात्-उसे दोनों दानों की अपेक्षा अभय दान ( जीवन-दान ) का विशेष फल प्राप्त होगा ॥५७|| जिसप्रकार प्राणी, अपने शरीर के लिए दुःख देना नहीं चाहते उसीप्रकार यदि दूसरे प्राणी को दुःख देना नहीं चाहें तो उन प्राणियों को दुःख उत्पन्न नहीं होता ।१५८। हे माता ! उक्त तीनों एलोक, कल आपने ही हिरण्यगर्भ नाम के मन्त्री के पुत्र 'नोतिबृहस्पति' से मुझे पढ़ाये थे | हे माता ! तुम उक्त श्लोकों का किसप्रकार से भूल गई? जब पापकर्म करना चाहिए, उसमें क्या दोष है? यदि पाते जानेवाले प्राणी की तरह अपनी आत्मा को आपत्तियों के सुलभ व व्यापार-युक्त विस्तार न होवें। अर्थात्-जब धाते जानेवाले प्राणी को तरह धातक पुरुष को विशेष दुःख भोगने पड़ते हैं तब हिंसादि पातक क्यों करना चाहिए? जब ब्राह्मणों व देवताओं के सन्तुष्ट करने के लिए एवं शारीरिक पुष्टि के लिए संसार में प्राणिहिंसा को छोड़कर