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________________ २५८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तदानज्ञानविज्ञानमहामह महोत्सवः । वर्धानद्योतनं कुर्यावहिका पेक्षयोजिमतः ॥२०९।। यतामनीपालमानम्-पचालदेशेषु भीमस्पायनापपरमेश्वरयशःप्रशाशनाम अहिच्छत्रे चन्द्राननाङ्ग भारतिकुसुमचा द्विपंतपस्य' भूपत्तेतरितोषितकुलशील: पगं वे बचे निमित्तं दण्डनीत्यां पाभिविनीप्तमतिरापना बीना मानुषीणां च प्रतिकता यज्ञदत्ताभट्टि नीभर्ता सोमबत्तो नाम पुरोहितोऽभूत् । एकवा नु सा कित यज्ञदस्तान्त चत्नी सती माफच मञ्जरी कर्णपूरेषु तपरिणतफलाहारेप व समासादितवोहना व्यतिक्रान्तर सालयस्तरोफलकालतया कामितमनवाप्नुवती शिफासु१२ व्यवमानर प्रसानिनीय पतनुतानन्त्रमुपेयुषो से पुरोहितेन बुद्धि तथा धनादि वैभव से समर्थ होने पर भी परलोक में अपनी आत्मा का उद्योत करने वाला नहीं हो सकता। अर्थात्---उस स्वर्गश्री व मुफित्री की प्राप्ति नहीं हो सकती ।। २०८ ॥ इसलिए धर्म-बुद्धि वाले मानव को ऐहिक सुरल की अपेक्षा से रहित होते हुए आहारादि चार प्रकार के पात्रदान से, आगम के ज्ञान से, चौसठ फलाओं के विज्ञान में एवं प्रतिष्ठा-आदि महोत्सवों से, सम्यग्दर्शन का प्रकाश करना चाहिए ।। २७९ ।। भावार्थ- स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी प्रभावना अङ्ग का निरूपण करते हुए कहा है-विा 'अज्ञानरूपी अन्धकार के विस्तार को हटाकर जैनशासन के माहात्म्य का प्रकाश करना प्रभावना है। इसमें बहुश्रुत, स्वार्थत्यागी, वक्ता व सुलेखक विद्वानों को एवं दानवीर धनाढयों की अपेक्षा होती है। इतिहास भी साक्षी है कि ई० से ३२५ वर्ष पूर्च भद्रबाह श्रुतकेवली ने सम्राट चन्द्रगुप्त के सहयोग से न केवल, ज्ञान का भण्डार भरकर शासन को उद्दीपित विया, किन्तु साथ में अनेक बहुश्रुत विद्वान् चरित्रनिष्ठ मुनिसंघ को पंदा करके जैनशासन की बृहत् प्रभावना की। अतः वर्तमान में जैन शासन को उद्दीपित करने के लिए अनेक बहुश्रुत स्वार्थत्यागी धुरन्धर विद्वानों को उत्पन्न करने का सतत प्रयत्न करना चाहिए और यह बात तभी संभव है जब प्रत्येक स्थान में विद्यालय व गुरुकुल हो । बहुश्रुत विद्वानों का कर्तव्य है, कि वे द्वादशाङ्ग श्रुत के उद्धार के लिए संस्कृत या प्राकृतिक शास्त्रों का खोजपूर्ण हिन्दी अनुवाद करें ताकि शास्त्र, स्वाध्याय सुलभ हो जाय । इसी प्रकार दानवीर धनाढयों का कर्तव्य है कि वे विद्वानों की सेवा शश्रपा करते हए उन्हें जेन शासन को प्रभावना के श्रेयस्कर मार्ग में पूर्ण (सन, मन व धन से सहयोग दें। ऐसा करने से वे स्वर्ग श्री व मुक्तिश्री के पाम होकर ऐहिक कीतिभाजन भी होंगे। अब प्रभाबना अङ्ग में प्रसिद्ध वकुमार मुनि की कथा सुनिए पञ्चाल देश में श्रीमत्पावनाथ तीर्यवर की कीति के प्रकाशान का पात्र 'अहिच्छत्र नाम का नगर है। उसमें 'चन्द्रानना' नाम की रानीरूपी रति के लिए कामदेव-सा मनोज 'द्विपंतप' नाम का राजा राज्य करता था | उसको ऐमा 'सोमदत्त' नाम का राजपुरोहित था, जो कि कुलीन, सदाचारी और छह वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरक्त छन्द व ज्योतिष), चार वेद, ज्योतिष, निमित्तज्ञान और दण्डनीति विद्या में प्रवीण बुद्धिशाली था एवं देवी ( उल्कापात, अतिवृष्टि व अनावृष्टि आदि ) तथा मानुषी आपत्तियों को दूर करने में समर्थ था। उसकी 'यशदत्ता' नामकी स्त्री थी। एक बार यज्ञदत्ता गर्भवती हुई और उसे आम्रमज्जरी के कर्णपूर के धारण का और पके हुए आनफलों के भक्षण का दोहला हुआ । परन्तु आम्र-मञ्जरी व पके हुए आन-फल का मौसम बीत जुका था, अतः १. प्रतिष्ठादि । २. इहलोकसुम्लापेमारहितः । ३. अमत्रे-पात्र भाजने । ४. नाम्नः । ५. शिक्षा, कापी व्याकरणं छन्दो ज्योतिरिक्त चेति । ६. प्रतीकारकर्ता। ७. गभिणी। ८. माकन्दरसालपिकप्रियकालिवासाः चुतपर्यायाः । ९. वल्लीवल्ली मजामपि । १०. पक्वं । ११. आम्रवल्लरी। * 'कामितमनवाप्तवती' इति का। १२. मलेयु, शिफाः जटाः इति पं०। १३, प्रतानिनी लता वल्ली। १४. नायकत्वं प्रामा।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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