SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९८ यशस्तिलक चम्पूकामे स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापापरास्पदम् ' । सन्तोऽन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम् ॥ १० ॥ कमयमपि प्राणी करोतु यदि चाश्ममः । हन्यमानविधिर्न स्यायम्यथा वा न जीवनम् ॥ ११ ॥ धर्मा धर्म किन्तु विशेषकारणम्॥ ६२ ॥ अपात्लेशष्टु सुधीरचेत्यस्य वाञ्छति । झात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। १३ ।। समानोऽपि जन्मान्तराश्रयः । यः परानुपघातेन मुख सेवापरायणः ।। १४ ।। समान्ननु लोकेऽस्मिन्नुवर्क" दुःखवजितः । "यस्तवात्य सुखालान्न मुह्येयमंकर्मणि ॥ १५ ॥ स भूभारः परं प्राणी जीवन्त्रपि मृतश्च सः । यो न धर्मार्थकामेषु भवेयन्यतमाश्रयः १० ।। १६ ।। स मूर्खः स जयः सोऽज्ञः स पशु पशोरपि । योऽदनन्नपि फलं धर्माद्ध में भवति मन्दधीः ।। १७ ।। स विद्वाम्स महाप्राज्ञः स धीमान् स च पण्डितः । यः स्वतोदान्तो वापि भाषमय समीहते ॥ १८ ॥ मांस-त्याग सज्जन पुरुष ऐसे मांस को, कैसे भक्षण करते हैं ? जो कि स्वभाव से अपवित्र व दुर्गन्धित है, जो दूसरे पशु-पक्षियों के घात से उत्पन्न होता है, जो कसाईयों व खटीकों आदि के खोटे स्थान से प्राप्त होता है एवं जो भविष्य में दुर्गति का देने वाला है ।। १० ।। यदि मोस के निमित्त हमारे द्वारा घात किया जा रहा पशु दूसरे जन्म हमारा घात न करे या मौम के बिना दूसरा कोई भी उन्हर-पोषण का उपाय नहीं है तो प्राणी नहीं करने योग्य कर्म ( जीव-घात ) भले ही करे, किन्तु ऐसी बात नहीं है, मांस के बिना भी अन्न व भक्ष्य फलादि से उदर-पोषण होता ही है, अतः मांस भक्षण नहीं करना चाहिए ।। ११ । अहिंसा धर्म के माहात्म्य से सुख भोगने वालों को धमं से द्वेष करने का क्या कारण है ? अर्थात्-धर्म से द्वेष करना उनकी निरी मूर्खता है । क्योंकि कौन बुद्धिमान पुरुष अभिलषित - इच्छित वस्तु देनेवाले कल्प वृक्ष से द्वेष करता है ? अगितु कोई नहीं करता || १२ || यदि बुद्धिमान पुरुष पोड़ा-सा क्लेश उठाकर अपने लिये विशेष सुखी देखना चाहती है, तो उसका कर्तव्य है, कि जैसा व्यवहार ( मारना च विश्वास घात आदि) अपने लिए दुःखदायक है, बेसा व्यवहार दूसरों के प्रति न करे ॥ १३ ॥ पुरुष दूसरों का धात न करके अपनी सुख सामग्री के भोगने में सत्पर है, वह इस लोक में सुख भोगता हुआ भी दूसरे जन्म में सुख का स्थान होता है ||१४|| जो मनुष्य इस जन्म में तात्कालिक सांसारिक सुखों में आसक्त होकर धार्मिक कर्तव्यों में मूढ़ नहीं होता अर्थात् -- धर्म कर्म में प्रवृत्त होता रहता है, वह इस लोक व परलोक में दुःखी नहीं होता -सुख लाभ करता है || १५ || जो मानव धर्म, अर्थ व काम में से एक का भी आश्रम नहीं करता वह पृथ्वी का भार रूप है और जीता हुआ भी मन्मा है ।। १६ ।। जो मानव धर्म से उत्पन्न होने वाले मांसारिक सुख रूप फल का उपभोग करता हुआ भी धर्मानुष्ठान में मन्दबुद्धि ( आलसी ) है, यह मूर्ख है, जड़ है, अज्ञानी है और पशु से भी निरापशु है || १७ || जो स्वयं या दूसरों के द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी अघमं करने की चेष्टा नहीं करता, वही विद्वान महाविद्वान और बुद्धिमान तथा पण्डित है ॥ १८ ॥ १. दुःस्थाने नाकारला | २. भक्षयन्ति । ३-४ यथा पाहूतः तथा पश्चात् स पशुः हिनस्ति अथवा चेन्मांसं विनान्त्यः कोऽपि जीवनोपायो नाति । चन्नमद फादिकं वर्तते तहि मां ५. को द्वेधं करोति । ६. भुञ्जानोऽपि । ७ नवति । ८ आगामिकाले । ९. इहलोके तत्काले एकस्यापि मः मध्ययो न भवति । तस्य हिंसकस्य न कथं भक्ष्यते । १०. त्रिषु मध्ये
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy