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________________ ४३० यशस्तिलक चम्पूकाव्ये तन्नास्ति यदहं लोके सुखं दुःखं च माप्तवाम् । स्वप्नेऽपि न भया प्राप्तो नागमसुधारसः || २१६ । सम्यगेतत्सुधाम्भोषेयन्तुमप्पालिहन्मुहुः । जन्तुनं धातु जायेत जन्मबलनभावनः ॥ २१७ || 'वेवं वेवसभासीनं पश्वकल्याणनायकम् । चतुस्त्रियावगुणोपेतं प्रातिहार्योपशोभितम् ॥२१८॥ निरञ्जनं जनाधीशं परमं रमयाधितम् । बध्युतं च्युतदोषोधमभवं भवभूद्गुवम् ॥ २१९ ॥ सर्वसंस्तुत्यमस्तुत्य सर्वेश्वरमतीश्वरम् * । सर्वाराध्यमनाराध्यं सर्वाश्रयमनाश्रयम् ॥ २२० ॥ प्रभयं सर्व विद्यामः सर्वलोकपितामहम् । सर्वमत्त्व हितारम्भ "गसवंग ॥ २२१ ॥ नामरकिटांशुपरिवेषनभस्तले । भवत्पादद्वय द्योतिनखनक्षत्रमण्डलम् ।। २२२ ।। स्तूप मानमनूचानं ब्रह्मोद्यं ब्रह्मकामिभिः । "अध्यात्मागम वेषोभिर्योगि मुख्य महद्धिभिः ॥२२३॥ नीरूपं रूपितादोषमशक्यं शम्यनिष्ठितम् । अस्पर्श ''योगसंस्पर्शमरर्स १२ सरसागमम् || २२४॥ मैंने प्राप्त न किया हो किन्तु जैनागमरूपी अमृत का पान मैंने स्वप्न में भी नहीं किया ।। २१६ ॥ जो प्राणी इस आगमरूपी क्षीरसागर की एक विन्दु का भी आस्वादन कर लेता है, वह फिर कभी भी जन्मरूपी अग्नि का पात्र नहीं होता । अर्थात् --- --उस शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है, जिससे उसे संसार में भ्रमण नहीं करना पड़ता ।। २१७ ।। [ अब अर्हन्त भगवान् के ध्यान करने की प्रेरणा करते हैं- ] धर्मी को ऐसे अर्हन्त भगवान् का ध्यान करना चाहिए, जो कि समवसरण में विराजमान पंच कल्याणकों के स्वामी, चौतीस अतिशयों से युक्त और आठ प्रतिहायों से विभूषित हैं, जो निरञ्जन ( घातियाकर्मरूपी मल से रहित ), मनुष्यों के स्वामी, व सर्वोत्कृष्ट हैं, जो अन्तरङ्ग व बहिरङ्ग लक्ष्मी से आश्रय किये हुए, आत्मस्वरूप से च्युत न होनेवाले, दोष-समूह से रहित और संसार रहित होकर संसारी प्राणियों के गुरु हैं, जो समस्त प्राणियों द्वारा स्तुति-योग्य हैं किन्तु जिनके लिए कोई भी स्तुति-योग्य नहीं है, जो समस्त प्राणियों के स्वामी हैं किन्तु जिनका कोई स्वामी नहीं है, जो सबके आराध्य हैं परन्तु जिनका कोई माराध्य नहीं है, जो सबके आश्रय हैं परन्तु जिनका कोई आश्रय नहीं है, जो समस्त विद्याओं के उत्पत्तिस्थान और समस्त लोक के पितामह हैं, जिनके कार्य का प्रारम्भ समस्त प्राणियों के हित के लिए है जो समस्त विश्व के ज्ञाता और स्वशरीर के परिमाण हैं ।। २१८-२२१ ।। जिनके चरण-युगल का प्रकाशमान नखरूपी नक्षत्र समूह, नमस्कार करने वाले देवों के मुकुटों के किरण- मण्डलरूपी आकाश में शोभायमान हो रहा है ।। २२२ ।। द्वादशाङ्ग श्रन के पारगामो ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म की कामना करनेवाले अध्यात्मशास्त्र के कर्ता तथा महान् ऋद्धिवारी गणधर जिनकी स्तुति करते हैं ।। २२३ ।। जो रूप-रहित हैं और समस्त वस्तु समूह के ज्ञाता है, जो स्वयं शब्दरूप नहीं हैं किन्तु आगम से निर्णीत हैं, जो स्पर्श-रहित हैं किन्तु ध्यान से स्पृष्ठ हैं, जो रस गुण से रहित हैं, किन्तु जिनका आगम सरस ( सुखरस का उत्पादक ) है, जो गन्धगुण से रहित हैं किन्तु अनन्त ज्ञानादि गुणों से अपनी आत्माको सुगन्धित करनेवाले हैं, जो चक्षुरादि इन्द्रियों के संबंध से रहित है अर्थात् — जब भगवान् केवलज्ञानी हुए तभी से इनका भावेन्द्रियों से संबंध छूट गया, किन्तु इन्द्रियों के विषयों के प्रकाशक ★ श्रीरसमुद्रस्य । १. अर्हन्तं ध्यायेत् । २. चतुस्त्रिशद्गुणोपेतं निःस्वेदत्यादयो दश सहनाः, गज्यूतिशतचतुष्ट्य सुमिश्रितादमी घातिक्षयजा: दया, सर्वार्धिमागवी भाषादयो देवोननीलाश्चतुर्दश । ३. न विद्यते स्तुत्यो यस्य । ४, म विद्यते ईश्वरः स्वामी यस्य सः अर्हन् । ५. ज्ञातं सर्व येन । ६. न सवं गच्छतीति शरीरप्रमाणमित्यर्थः । ७. ब्रह्मविद्भिः । ८ बागमकर्तृभिः । ९. ज्ञात । १०. आगमेन निष्ठा यस्य । ११. ध्यान । १२. सुखरसागमं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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