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________________ अष्टमआश्वासः ४२१ ध्यातात्मा ध्येयमात्मैव ध्यानमात्मा फलं तथा । आस्मा रत्नत्रयाएमोक्तो यथा पुस्तिपरिग्रहः ।।२०८॥ सुखामृतसुषासुतिस्ता 'देवयाचलः परं ब्रह्माहम वासे तमपाशवशीहसः ॥२०९|| पसा पकालि मे तनहालोरयगोचरम । तवा जाता चक्षः स्यामादित्य इवातमाः ॥२१॥ आदौ मध्यमप्रास्ते समिन्धिपन सुखम् । प्रातःस्नायिषु हेमन्ते तोयमुष्णमिवालि ।।२११॥ यो दुरामयदुवंश बद्ध पासो यमोऽङ्गिनि । स्वभावसुभगे तस्य स्पृहा केन निवार्यते ।।२१२।। अग्मयोगनसंयोगमुखामि यदि देहिनाम् । मिविपाणि को नाग सुपीः संसारमुस्मृजेत् ।।२१३॥ अनुयाचेत नापूषि नापि मृत्युमुपाहरेत् । भूतो भत्य हशतीत कालावषिविस्मरन् ॥२१४।। महाभागोऽहमद्यास्मि पत्तस्त्रचितेजसा । मुविशुवासरात्मासे लमःपारे प्रतिष्ठितः ॥२१॥ रूपीलक्ष्मी से आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का ध्यान करता है तब आत्मा को परमात्मरूप से प्राप्त करता है.-परमात्मा बन जाता है ।। २०७१। आत्मा ही ध्याता (ध्यान करनेवाला) है, आत्मा ही ध्येय ( ध्यान करने योग्य ) है एवं आत्मा ही ध्यान है तथा रत्नत्रयस्वरूप आत्मा हो ध्यान का फल है । अर्थात्ध्याता, ध्यान, ध्येय और उसका फल ये सब आत्मस्वरूप ही पड़ते हैं, युक्ति के अनुसार उसको ग्रहण करना चाहिए ॥२०८ ॥ में सुखरूपी अमृत की उत्पत्ति के लिए चन्द्रमा हूँ तथा सुखरूपी सूर्य को उदित करने के लिए उदयाचल हूँ। एवं में परब्रह्म स्वरूप है, परन्तु अज्ञानान्धकाररूपो जाल से पराधीन होकर इस शरीर में ठहरा हुआ हूँ ॥ २०९ ।। जव मेरा मन उस शुक्लध्यान के उदय को विषय करनेवाला होकर प्रकाशित होगा तब में उस प्रकार अतम् ( अज्ञान नष्ट करनेवाला ) होकर तीन लोक के पदार्थों का दृष्टा ( केवली ) हो जाऊँगा जिस प्रकार अतम ( अन्धकार नष्ट करनेवाला) सूर्य जगत को चक्षु ( लोक के पदार्थो को प्रकाशित करनेवाला) होता है ॥ २१ ॥ समस्त इन्द्रिय-जन्य सुम्न शुरु में मधु-जैसा मोठा प्रतीत होता है परन्तु अखोर में कटुक मालूम पड़ता है जैसे शीत ऋतु में सवेरे स्नान करनेवाले प्राणियों को उष्ण जल प्रिय मालूम पड़ता है न कि ग्रीष्म ऋतु में प्रातः स्नान करने वालों को ।। २११ ॥ जो यमराज दुष्ट व्याधियों से पीड़ित होने के कारण दुःख से भी देखने के लिए अशक्य ( कुरूप) प्राणी को अपने मुख का ग्रास बनाता है, तो स्वभाव से सुन्दर प्राणी को अपने मुख के ग्रास बनाने की उसकी इच्छा को कोन रोक सकता है? अर्थात्-वह सुन्दर मनुष्य को भी खा लेता है ।। २१२ ।। यदि प्राणियों के जन्म, यौवन व इष्ट-संयोग से होनेवाले सुख विपक्षों (जन्म का विपक्षी मरण और जवानी का विपक्षी बुढ़ापा एवं इष्ट संयोग-सुख का विपक्षी इष्टवियोग ) से रहित होते तो ऐसी संभावना है कि कौन बुद्धिमान मनुष्य संसार को छोड़ता ? ॥ २१३ ॥ योगी पुरुष को काल की अवधि को न भूलते हए । इस प्रकार निश्चय करते हुए कि स्वादिष्ट अन्नआदि से पुष्ट किया हुआ भी यह शरीर यमराज की वञ्चना का उल्लंघन नहीं करता ) न तो जीवन की याचना करनी चाहिए कि में अधिक काल तक जीवित रहूं और न मृत्यु को अनिच्छा करनी चाहिए कि मैं कभान मह| उस उसप्रकार अपने कर्तव्य (ध्यानाद') में स्थित होना चाहिए जिस प्रकार स्वामी द्वारा भरण-पोषण किया हुआ ( वेतन पानेवाला ) नौकर उसके कर्तव्य में सावधान रहता है ।। २१४ ।। मैं आज विशेष भाग्यशाली हूँ, क्योंकि तस्ववद्धानरूपी प्रकाश से मेरी अन्तरात्मा विशुद्ध हो गई है और मैं मिथ्यात्वरूपी गाढ़ अन्धकार को पार करके प्रतिष्ठित हूँ ।। २१५ ।। संसार में ऐसा कोई भी सुख-दुःख नहीं है, जिसे १. सुत्रसूर्यस्य । २. देहे तिष्ठामि । ३. यमस्य । ४. शाश्वसानि । ५. पृष्टो मृष्टान्नादिभिः कायः। ६. भूत्वः कायः यमवंचना न लङ्घयतीत्यर्थः, तेन कारणेन योगिना जीवितमरणयोवाञ्छा अवाम्छा न कर्तव्या।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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