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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आप्रवृत्तनिवृत्ति सर्वस्येति लियः । संस्मृत्म गुमनामानि पुर्यानि वाविक विधिम् ॥ ९० ।। वावायुविरामे स्यात्प्रत्याल्पानफलं महत् । 'भोगशून्यमतः कालं नावहेदनतं प्रती ।। ९१ ।। एका जोपवयंमत्र परत सालाः क्रियाः । पर फलं तु पूर्वत्र “कृश्चिन्तामणेरिव ॥ ९२ ।। आयुष्मान्सुभगः श्रीमान्सुरूपः कोतिमानरः । अहिंसावतमाहात्म्यावेकरमावेव बायते ।। १३ ॥ धूयतामनाहिसाफलस्योपाख्यानम्-अन्तिदेशेषु समलोकममोरागमारामे' शिरीषनामे मृगसेनाभिमामो मत्स्यबन्धः स्कन्धावलम्बितगलनालायामरणः जमाना "पनीसहितः सानोलजलप्लाचितकूलशालेयमालय सिमा सरितममुसरन शेषमविपरिषदर्यमशिलमहाभागभूतिकल्पितसपर्य मिप्यास्वविरहितपम. वर्य श्रीयशोधराचार्य निधास्य १० समासन सुकृतासानहक्मत्वावरादव परित्यक्तपापसंपावनोपकरणग्रामः" शयन के पहिले के काव्य "जब तक मेरी पंचेन्द्रियों के विषयों में प्रति नहीं हुई तब तक के लिए मेरे सब का त्याग हैं इस प्रकार प्रतिज्ञा करते हुए फिर पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करके निद्रा-आदि लेनी चाहिए ॥ ९ ॥ क्योंकि देव-वश यदि आयु क्षीण हो जाय तो माग से विशेष लाभ होता है, अतः वत्ती का कर्तव्य है, जिस काल में यह भोग न करता हो, उस काल को विना व्रत के न जाने दे । अर्थात्-उतने समय के लिए उसे भोग का प्रत्त ले लेना चाहिए। टिप्पणीकार ने भी लिखा है कि 'निद्रादि लेते समय भोग-शून्यता रहती ही है, अतः नियम लिये बिना काल व्यतीत न करे ।। ९ ।। अकेली जीवदया एक जोर है और बाकी की समस्त धार्मिक क्रियाएं दूसरी और हैं । अर्थात् अन्य समस्त क्रियाओं से जीवदया श्रेष्ठ है । अन्य समस्त बार्मिक क्रियाओं का फल खेती करले सरोखा ( भविष्य कालोन) है और जीवदया का फल चिन्तार्माण रस्न की तरह है, अर्थात्-चाही हुई चिन्तित वस्तु तत्काल देता है ।। ९२ ॥ केवल अहिंसा व्रत के प्रभाव से हो दयालु मानव दीर्घायु, भाग्यशाली, लक्ष्मीवान, सुन्दर व यशस्वी होता है ।। ९३ ।। अहिंसा व्रत के पालक मृगसेन बीयर की कथा अब अहिंसा व्रत के फल के संबंध में एक कथा सुनिए अवन्ति देश के शिरीष नामक ग्राम में, जहाँ के उद्यानों में सभी जन समूह आनन्द पूर्वक विचरते हैं, मृगसेन नाम का धीवर रहता था। एक दिन वह कंधे पर लटकाए हुए मछलियों के फंसाने के काटे व जालआदि साधनों को लेकर मछली लाने के लिए विचरता हुआ ऐसी सिमा नदी की ओर चला, जो कि अपनी तरङ्गों के जल प्रवाह द्वारा तटवर्ती वृक्षश्रेणी को और खेतों को डुबो रही थी। ___ मार्ग में उसने श्रीयशोधर आचार्य के दर्शन किये, जो कि समस्त मुनियों को सभा में श्रेष्ठ थे और समस्त भाग्यशाली राजाओं द्वारा पूजित थे और मिथ्यात्व से रहित ( सम्यग्दर्शन-पूर्वक ) धर्म का आचरण करनेवाले थे। १ निद्रादिकं फुर्वा भीगस्य शून्यता स्यात्तेन नियम विना कालं न गमयत् । २. न निर्गमनं कुर्यात् । ३. दयायां । ४. अन्यासा क्रियाणां फलं ऋषिवत्, दयायास्तु चिन्तामणिवत् । ५. मनोहरः आगमः – बागमनं यत्र पारामेषु । ६. पृयुरोमा, शकुली, बसारिणः, अपडलोणः, पाठीनश्च मत्स्पः । ७. कृत। ८. वृक्षणिसटां । *. 'इच्छाविहारविहितवर्मपये अथवा 'धर्मचर्य' इति कः । ९. मिश्यात्वेन विरहिता धर्मचर्या-चारित्रं यस्य स ल । १०. अवलोक्य-वृष्ट्वा । ११. समूह ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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