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________________ सप्तम आश्वास: आत्मदेशपरिस्पन्यो मोगो योगविदा मतः । मनोवास्कामतस्त्रेषा पुण्यपापानवाश्रयः ॥८४ ॥ हिसनामापौर्याधि कामे कर्मा विदुः । असत्यासम्पपासायना बधारगोधरम् ॥ ८५ ॥ मवेनियमावि स्याश्मनोव्यापारसंश्रयम् । एतविपर्यया शुभमेनेषु तत्पुनः ।। ८६ ।। हिरण्यपभूमीनां कन्याशयान्नवाससाम् । वानेहुविधश्शयनं पापमुपशाम्यन्ति ।। ८७ ।। अनौषषसाथ्याना याबीनां बाहाको विधि: । यत्राकिषिकरो लोके तथा पापेऽपि मन्यताम् ॥ ८॥ निहत्य निखिलं पापं मनोवादेहदण्डनः । करोतु सफल कम वानयूनादिकं ततः ।। ८९ ।। भावार्थ-प्रायः विवेक-हीन मानव मानसिक असंयम ( मद, ईर्षा व अनिष्ट-चिन्तवन-आदि ) और वाचनिक असंयम ( असत्य, असभ्य व मर्म-वेधक वचन बोलना ) और कायिक असंयम ( हिंसा, कुशील व चोरी-दि) द्वारा जो प-संवकर का, तो इसका कर्तव्य है कि इसके विपरीत मानसिक संयम ( अहिंसा, मार्दव-आदि) व वाचनिक संयम । हित, मित व प्रिय भाषण-आदि) और कायिक संयम ( अहिंसा, अचोय च ब्रह्मचर्य-आदि) Eाग पापों का त्याग करे । विमर्श यहाँ पर इलोक में 'विहापयेत्' का अर्थ टिप्पणीकार ने 'त्यजेत्' किया है उसी अर्थ का अनुकरण हमने भी किया है । आगे के श्लोकों से यही अर्थ ठीक मालूम पड़ता है ॥ ८३ ।। योग का स्वरूप और भेदयोग-वेत्ता आचार्यों ने मन, बचन व काथ के निमित्त से आत्म-प्रदेवों के सकम्प होने को योग माना है। उसके तीन भेद है-मनोयोग, बचनयोग व काययोग । मन के निमित्त से आत्म-प्रदेशों का सकम्प होना मनोयोग है। वचन के निमित्त से आत्म-प्रदेशों का सकम्प होना वचन योग है और काय के निमित्त से आत्म-प्रदेशों का सकम्प होना काययोग है। उक्त तीनों प्रकार का योग पुण्य व पाप कर्मों के आस्रव (आग• मन ) का कारण है । अर्थात्-शुभ मन, वचन व काययोग पुण्य कर्म के आरव का कारण है और अशुभ मन, वचन व काययोग पाप कर्म के आस्त्रब का कारण है ।। ८४ ॥ आचार्य जानते हैं कि प्राणियों की हिंसा करना, कुशील-सेवन करना व चोरी करना अशुभ काययोग है और असत्य, असभ्य और दूसरों के मर्म-भेदक अप्रिय एवं कठोरप्राय वचन बोलना अशुभ वचनयोग है ।। ८५ ।। विद्वत्ता व पूजादि का धमाड़ करना, ( अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से काम वासना से उत्पन्न हबा कोप, ) ईर्ष्या ( धर्म द्वेष ) करना, असूया ( दूसरों के गुणों में भी दोपारोपण करना । आदि विकृत मनोवृत्ति के व्यापार के आश्रयवाला अशुभ मनोयोग जानना चाहिए और इनसे विपरीत अहिंसा व मार्दव-आदि शुभ मनोयोग समझना चाहिए ।। ८६ ॥ पापों से बचने का उपाय सुवर्ण, पशु, पृथिवी, कन्या, शय्या, अन्न, वस्त्र तथा अन्य अनेक वस्तुओं के दान देने से पाप शान्त नहीं होता ।। ८७ ।। जिस प्रकार लोक में लङ्कन और औषधि द्वारा न होने वाले रोगों को नष्ट करने के लिए केवल वाझ उपचार व्यर्य होता है उसी प्रकार पाप के विषय में भी मानना चाहिए । अर्थात् मन, वचन व काय को वश में किये विना केवल बाह्य वस्तुओं के त्याग कर देने मात्र से पापरूपी रोग शान्त नहीं होता ।। ८८ ॥ इसलिए मन, वचन व काय के निग्रह द्वारा समस्त पाप नष्ट करके पश्चात् दान और पूजा-आदि सर्व शुभ कार्य करो ॥ ८ ॥ १. कामजः कोप: धर्मद्वेषः । २. दोषारोपो गुणेष्वमि । ३. एता विपर्ययात् अहिंसाब्रह्मास्तेयादिशुभपरिणामः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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