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________________ पष्ठ आश्वासः या ग्राह्ये 'मलापात्सत्यस्वप्न द्वषात्मनः । सदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्मिन्मथस्थान ममानक भू ।। ३९ ।। न चायं सत्यस्वप्नोऽप्रसिद्ध स्वप्नाध्यायेऽतीव सुप्रसिद्धत्वात् । तथाहि यस्तु पश्यति राज्यन्ते राजानं कुञ्जरं हयम् । सुवर्ण श्रूषभं गोच कुटुम्बं तस्य वर्षसे ॥४ यत्र नेत्रादिकं नास्ति न तत्र मतिरामति । तन्न युक्तमिदं यस्मात्स्वप्नमयोऽपि योजते ॥४॥ श्रमिन्यावेनं रथेऽपि प्रकृष्येत मतिर्यदि । पराकाष्ठा ध्वस्तस्याः" म्यजिरले परिमाणवत् ।।४२।। भावो न कस्यापि हानि दीपस्तमोऽन्ययो । घराविषु धियो हानी विश्लेषे सिद्ध साध्यता ॥२४३॥ १९३ इसका विनाश नहीं हुआ तब मुक्ति प्राप्त होने पर यह किस कारण से आपके 'दिदां न कांचित्' इत्यादि कहे अनुसार नष्ट हो जाता है ? ह्. लि. ( क ) प्रति के पाठान्तर का अर्थ यह है कि राजीव ने पूर्व में मनन्त जन्मों में संक्रमण किया तथापि इसका क्षय नहीं हुआ तब मुक्ति में किस कारण से इसका क्षय होता है ? ||३|| १३. अब आचार्य सांख्पदर्शन की आलोचना करते हैं- ज्ञानावरण आदि बातिया कर्मों के क्षय हो जाने से उत्पन्न हुए केवलज्ञान से आत्मा जब समस्त शह्य पदार्थों को वैसा जान लेता है जैसे वात व पिस-आदि के प्रकोप न होने पर सत्य स्वप्न को जानता है तब आत्मा को अपने स्वरूप में अनन्तज्ञानवाली स्थिति हो जाती है। यह भी अर्थ है होने पर आत्मा में ही स्थित हो जाता है और बाह्य पदार्थों को नहीं जानता सांख्य का यह कथन प्रमाण है ॥ ३२ ॥ हमारा सच्चा स्वप्न उदाहरण अप्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि स्वप्नाध्याय में विशेषरूप से प्रसिद्ध है 'जो मानव पिछली रात्रि में राजा, हाथी, अश्व, सुवर्ण, वेल व गाव को देखता है उसका कुटुम्ब वृद्धिगत होता है || ४० || जिसमें नेत्रादि नहीं हैं उसमें स्वप्नवृद्धि नहीं होती, ( वह स्वप्न नहीं देखता । अतः आपका सस्थ स्वप्न-दर्शन उदाहरण असिद्ध है। ऐसी शङ्का करना उचित नहीं है। क्योंकि अन्धा पुरुष भी स्वप्न देखता है. अतः हमारा उदाहरण निर्दोष है || ४१ || अब आचार्य सर्वज्ञ न मानने वाले मोमांसकों की समालोचना करते हैं- यदि आप जैमिनि आदि आप्त पुरुषों में प्रकृष्ट बुद्धि मानते हैं तब किसी सर्वोत्तम महापुरुष ईश्वर में बुद्धि का परम प्रकर्ष ( विकास की चरम सीमा ) मानना भी वैसी मुक्ति-संगत है जैसे आकाश में परिमाण की पराकाष्ठा ( चरम सीमा महापरिमाण ) युक्ति-सिद्ध है। अर्थात् किसी मात्मा में कर्मक्षय होने पर बुद्धि के प्रकर्ष की चरम सीमा होती है । 1 भावार्थ - जैसे अणुपरिमाण परमाणु में और मध्यम परिमाण घटादि में पाया जाता है एवं उस परि माण की चरमसीमा ( व्यापक परिमाण ) आकाश में पाई जाती है वैसे हो जब आप हम लोगों में साधारण बुद्धि और जैमिनि वगैरह विद्वानों में विशिष्ट वृद्धि मानते हैं तब उस बुद्धि के प्रकर्ष की परकाष्टा भी किसी महापुरुष में माननी पड़ेगी-बही सर्वज्ञ है, इसमें किसी भी प्रमाण से बाबा नहीं आती ॥ ४२ ॥ यदि आप कहेंगे कि ऐसे तो किसी में बुद्धि का गर्वथा अभाव भी हो सकता है वो इसका उत्तर यह है कि किसी भी वस्तु का तुच्छाभाव नहीं होता वह वस्तु इकदम नष्ट ( शून्यरूप ) हो जाय - ऐसा नहीं होता। जैसे दीपक बुझता है तो प्रकाश अन्धकार रूप में बदल जाता है। इसी तरह पृथिवी आदि में बुद्धि की अत्यन्त हानि देखो जाती * 'अनेकअरमराक्रान्तेयविद १. कर्मशाळेतज्ञानं वा अवलोकिते सति द्रष्टुः आत्मनः स्वरू अवस्थाम स्तनतिर गानरहितं अनंतज्ञानं उपादि २. अष्टा भवति । ४. परमप्रकर्षो भवति । ५. मतः । ★ पो न। ६. वस्तुतः ७ हानि: अपना हानिदोष तमोमयो' इति लि० ० ) प्रती पाठ: । ९. पृथिव्या जीवावृषु सत्सु युहनी गत्या - बुद्धिविनाशे सति यदा धरादीनां विश्लेपो भवति तदा मोक्षो भवति सत् कर्मसंश्लेषे सति केवलज्ञानं नोत्पद्यते कर्मविदले तु केवलज्ञानं भवत्येव । २५
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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