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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्यं बोधो वा यदि वानन्दो नास्ति मुक्ती भवोद्भवः । सिद्धसाध्यतयास्मार्क न काचित्क्षसियते॥ ३५॥ पक्षवीचाविनिम मोले कि मोक्षिलक्षणम् माग्नावग्यदुष्णत्वा लक्ष्मलक्ष्यं विचक्षणं ॥ ३६॥ किच, सदाशिवेश्वराचयः संसारिणो मुक्ता वा ? संसारित्वे कथमाप्तता, मुक्तश्खे "श्लेशकर्मविपाकादार्यंरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरस्तत्र निरतिशयं सर्वजवीजम्' इति पतञ्जलिजल्पितम् । १९२ ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्तिनिसगंजनिता वशितेन्द्रियेषु । आत्यन्तिकं सुखमनावरणा व शक्तिर्ज्ञानं च सर्वविषयं भगवंस्तव ॥ ३७ ॥ इत्यवधूताभिधानं च न घटेत । अनेकजन्मसंततेय ववद्यालय, ५ पुमान् । यथसी मुपवस्यायां कुतः क्षोपेत हेतुतः || ३८३॥ की कि 'मैं वादी ( माध्यमिक बौद्ध ) प्रमाण से शून्य तत्व को सिद्ध करता हूँ तब आपका सर्वशून्यत्ववाद fire हो जाता है, क्योंकि प्रमाण तत्व के सिद्ध हो जाने से शून्यतावाद कहाँ रहा ? ॥ २४ ॥ ११. [ अब आचार्य मुक्ति में आत्मा के विशेष गुणों का विनाश मानने वाले वैशेषिक दर्शनकार कणाद ऋषि के मत की मीमांसा करते हैं ] यदि मुक्ति-अवस्था में सांसारिक चक्षुरादि इन्द्रिय-जनित क्षायोपशमिक ज्ञान व सुख नहीं है तो मुक्ति संबंधी आत्मिक बाकि के क्षापि सुख है ही ऐसी मुक्ति से तो हमें (आईनों-जैनों को ) सिद्धसाध्यता हुई । अर्थात् - ऐसी मुक्ति हमें भी इष्ट है । तब हमारी कोई हानि नहीं देखी जाती || ३५ || समस्त पदार्थों के अवलोकन (ज्ञान) के विनाशलक्षणवाला भोक्ष मानने पर तो मुक्त आत्मा का लक्षण ही क्या होगा ? क्योंकि विद्वान लोग वस्तु के विशेष गुणों को ही वस्तु का लक्षण मानते है जैस अग्नि का लक्षण उष्णता है। यदि अग्नि की उष्णता नष्ट हो जाय तो फिर उसका लक्षण क्या होगा ? अर्थात् - उष्णता को छोड़ कर अग्नि का दूसरा लक्षण नहीं है, वैसे हो ज्ञान को छोड़कर जीव का दूसरा लक्षण नहीं है। अतः मुक्त जीव में ज्ञानादि का सद्भाव मानना युक्तिसंगत है । अन्यथा विशेष गुणों के विना मुक्ति अवस्था में आत्मा का भी अभाव हो जायगा ।। ३६ ।। * तथा आपके 'सदाशिव व ईश्वर आदि संसारी है या मुक्त ? यदि संसारी हैं तो वे आप्त नहीं हो सकते ? यदि मुक्त हैं तो पतञ्जलि का यह कथन घटित नहीं होता 'ऐसा पुरुष विशेष ईश्वर है, जो कि समस्त दुःख (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश), कर्मों (विहित व प्रतिषिद्ध या पुण्य-पाप ), व विपाकों । कर्मफलों -- जन्म, आयु- जीवनकाल व भोग ) व आशयों ( धर्म, अधर्म व संस्कार ) से संस्पृष्ट नहीं है, ऐसे परम विशुद्ध चीतराग होने में उसकी अनोखी सर्वज्ञता बीज ( कारण ) है । इसी प्रकार ran fears का निम्न कथन भी संघटित नहीं होता । 'नित्य ऐश्वर्य, स्वाभाविक वीतरागता, नैसर्गिक तृप्ति, जितेन्द्रियता, आत्यन्तिक ( अनंतमुख ) और आवरण-शून्य शक्ति और समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाला शान ( सर्वज्ञता ) ये प्रशस्त गुण हे भगवन् ! तेरे में ही हैं' ॥ ३७ ॥ १२. बौद्धमत - समीक्षा – जब कि इस जीव ने पूर्व में अनेक जन्म धारण किये तथापि अभी तक १. चेत् —संसारसंयंनी बोधः सुखं च नास्ति तहि मुक्तिसंबंधी बोधः सुखं च भवत्येव तया दृश्या मुक्त्वाऽस्माकं सिद्धसाध्य सजावं न काचिद्धानिः । २. न्यक्षाः समस्ताः । समस्तपदार्थावलोकनविनाशलक्षणे । ३. मोक्षी मुक्त: 1 मोक्षण: आत्मनः। ४ जानं बिना जीवस्य लक्षणं न भवतीत्यर्थः । * तथा च पातञ्जल योगसूत्रम् लेशाः अविद्यास्मिता राग पाभिनिवेशाः क्लेशाः पान० यां० सू० २३३ । ५. चेत् — पूर्व बहूनि जन्मानि जीवन गृहीतानि अद्यापि विमाशी न संजातः तहि मोक्षगमने सति सः दिशं न कचिद' इत्यादि, कस्मात् कारणात् भीयेत-क्षयं याति ? | दि० ( ख ) ( ) ( च )
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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