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________________ अष्टम आश्वासः Y 'पुष्पादिरनादिर्वा न स्वयं में एष हि । क्षित्या चिरिव धान्यस्य कि तु भावस्य कारणम् ॥ ३३५॥ युक्तं हि श्रद्धया साधु सकृदेव ममो नृणाम् । परां शुद्धिमवाप्नोति लोहं वियं रसैरिव ।। ३३६ ।। पदनाहीनं मनः सपि देहिनाम् । तत्फलप्राप्तये न स्मारकु "शूलस्थितबीजयत् ॥ ३३७ ॥ "बावेशिकाभितज्ञातिवनात्मसु यथाक्रमम् । यथौचित्यं यथाकालं 'यज्ञपञ्चकमाचरेत् ।।३३८ ।। ४५१ है ? और धर्म का कारण क्या है ? यह पुष्प आदि व अन्न आदि वस्तुएँ निस्सन्देह स्वयं धर्म नहीं है, किन्तु ये वस्तुएं वैसी परिणामों की निर्मलता में कारण हैं जैसे उपजाऊ भूमि आदि धान्य की उत्पत्ति में कारण होती है । भावार्थ - यद्यपि पूजा में चढ़ाई जानेवाली पुष्प वगैरह वस्तुएँ और मुनि आदि पात्रों के लिए दिया जानेवाला आहार स्वयं धर्म नहीं है, तथापि इनके निमित्त से होनेवाले शुभभाव से धर्म के कारण हैं, क्योंकि उनसे शुभ कर्म का वध होता है, जैसे खेत व जल वगेरह यद्यपि स्वयं धान्य नहीं हैं तो भी धान्य की उत्पत्ति में कारण होते हैं ||३३५।। यथार्थं श्रद्धा का माहालय निस्सन्देह मान का मन यदि एक बार भी यथार्थ (निष्कपट ) श्रद्धा से युक्त हो जाय तो वह उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होता है, जैसे पारदरस के योग से लोहा अत्यन्त शुद्ध हो जाता है (सुवर्ण हो जाता है । अर्थात् — जैसे लोहा, जिसके भीतर पारदरस के प्रविष्ट हो जाने से सुवर्ण हो जाता है वैसे ही यथार्थ श्रद्धा से युक्त हुआ मन अत्यन्त शुद्ध हो जाता है ।। ३३६ ।। मन को विशुद्ध करने का उपाय प्राणियों का मन प्रशस्त होने पर भी यदि तप, दान व देव पूजा से रहित है तो वह निम्स्सन्देह उस प्रकार तप आदि से होनेवाले फल को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता जिस प्रकार कोठी में भरे हुए धान्यवीज प्रशस्त होने पर भी धान्य के अङ्कुरों को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते । भावार्थ - जिस प्रकार धान्य आदि के वीज प्रदास्त ( अङ्कुर उत्पन्न करने को शक्ति वाले ) होने पर भी यदि केवल कोठी में भरे हुए रहे तो कदापि धान्य के अको उत्पन्न नहीं कर सकते, परन्तु जब उन्हें खेत में बोया जायगा और खाद व जल-संयोग आदि कारण सामग्री मिलेगी तभी वे धान्यारों को उत्पन करने में समर्थ होते हैं उसी प्रकार मानवों का प्रशस्त मन भी जब तप, दान व जिनेन्द्र भक्ति से युक्त होगा तभी वह स्वर्गश्री आदि का उत्तम सुख प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं, अतः मन को सदा शुभ कार्यों में लगाना चाहिए || ३३७ ।। पाँच दानों का विधान - आगन्तुक अतिथि को अपने आश्रितों को, अपने वंशवालों को एवं दुःखी १३. पुष्पानादिकां वस्तु भावस्य परिणामनिर्मलतायाः कारणं स्यात् । ४. एकवारमपि । ५ गुहको भाण्डागारं । ६ अतिथिः । ७. दानवकम् । तथा चास्त्रान्तरे— 'ऋषिदेव भूतयज्ञं च सर्वदा । नृमशं पितृय च यथाशक्ति न हापयेत् ॥ २१ ॥ - मनुस्मृति, अ० ४ । तथा वोक्तं— 'आवेशिकज्ञातिषु संस्थितेषु दीनानुकम्पू यथायथं तु । देशांचितं कालवलानुरूपं दद्याच्च किंचित् स्वयमेव चुद्धवा ||' धर्मरला० ५० १२६ ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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