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यथास्तिलकचम्पूकाव्ये दुःस्वप्मशता तव चेवथास्ति सस्वः समस्तः कुलदेवताय ।
कृस्या बलि शान्तिपोष्टिकार्थ पश्चात् लिस्वप्नविषि विहि ॥४१॥ मव मनागपिकमलौकिक वा। तथाहि
मधुप च यज्ञे च पितृदबाप्तकर्मणि । अव पशवो हिस्या मान्यत्रेत्याधीन्मनुः ॥ ४२ ।।
एष्यर्थेषु पयान्हिसम्वेदनेवार्थसिद्धिजः । आत्मानं च पश्चैिव गमयत्युसमा गतिम् ॥ ४३ ।। सया बेभ्यात्मक्षयोधमशेषविघ्नोपशमनायं च राजसूयपुण्डरीकाश्वमेवगोतववाजपेयाविषु वषिकामेष्टिकारीरित्यारिषु च यशेषु प्रवृत्तोऽये प्राणिवधः स वयो न भवति । यतः ।
यज्ञार्थ पशवः पृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञो हि भूत्यै सर्वेषां तस्मारने वषोऽवषः ।। ४४ ॥
इति । राजा--(कणी पिघाय निःश्वस्य च : ) कि नु खल्ल न करोति वेहिनामयं मोहबन्धः, तस्य प्रसवउस पर क्रोघरूपी जहर छोड़ो, क्योंकि ऐसा करने में कोई दोष नहीं है । है राजन् ! क्या खटमलों के भय से कन्या ( शीत-निवारण वस्त्र-गोदड़ी ) को छोड़ता हुआ कोई भी पुरुष देखा गया है ? अपि तु नहीं देखा गया १४०।।' हे पुत्र! यदि आपको दुष्ट स्वप्न का भय है तो कुलदेवता के लिए समस्त प्राणिवर्गों की बलि ( पात ) करके लाट में हट स्पप्न का ऐमा शमा निधान कगे, जिसमें शान्ति देनेवाला कर्म और शारीरिक पुष्टि निमित्त कम इन दोनों का प्रयोजन वर्तमान है ॥४१।।
हे पुत्र ! यह कुलदेवता के लिए प्राणियों का बलि विधान सदा से प्रचलित हुआ चला आ रहा है और लोक-प्रसिद्ध है। तथाहि यशोधर को माता निम्न प्रकार से उक्त बात का समर्थन करती है-मनु नाम के ऋषि ने कहा है कि निम्नलिखित चार स्थानों में ही पशु-बध करने योग्य हैं, अन्यत्र अर्थात्- भक्षण, व शारीरिक पुष्टि-आदि के निमित्त पश-बध करने योग्य नहीं है। मधुपर्क ( अतिथि सत्कार के अवसर पर अर्थात्-ब्राह्मण के गृहपर यदि ब्राह्मण अतिथि आता है, उस समय उसके चरण प्रक्षालित करके उनपर दही, मथु व पी छोड़े जाते हैं एवं बड़ा बैल व बड़ा बकरा मारकर उसे व अन्य ब्राह्मणों को खिलाया जाता है एवं चन्दन व पुष्प माला से उस अतिथि की पूजा की जाती है, इसे 'मधुपर्क' काहते हैं) २-यामकर्म ( अश्व. मेध-आदि यज्ञ), ३-पितृकर्म ( श्राद्ध कर्म ) एवं ४–रुद्र-आदि की पूजा विधान के अवसर पर ॥४२॥ वेदपाठ व वेद के अर्थ को जाननेवाला इन पूर्वक्ति चार कार्यों में पशुओं का घात करता हुआ अपनी आत्मा व पशुओं को उत्तममति ( स्वर्ग-आदि ) में प्राप्त कराता है ॥४३॥
शास्त्र में मात्मा के पुण्य-निमित्त व समस्त विघ्नों के बिनाशार्थ निम्न प्रकार के यज्ञों में किया हुआ प्राणि-वध, प्राणि-बध ( जीव हिंसा ) नहीं है। राजसूय, पुण्डरीक, अश्वमेघ, गोसब ब वाजपेय-इत्यादि अन्य भी यज्ञों के भेद हैं। एवं वार्षिकामेष्टि ( यज्ञ विशेष ) व कारी। क्योंकि ब्रह्मा ने स्वयं ही यज्ञ-निमित्त पशुओं की सृष्टि की है। निश्चय से यज्ञ समस्त याचक, आचार्य व मजमानादिकों के ऐश्वर्य हेतु है, इसलिए यज्ञ-निमित्त को हुई प्राणि हिंसा हिसा नहीं है [४४|| उक्त बात को सुनकर यशोधर महाराज ने श्रोत्रों को बन्द करके व श्वांस-ग्रहण करके निम्न प्रकार कहा-'प्राणियों का यह मोहबन्ध (रागादि ) व उसका उत्पत्ति स्थान अनान-सम्बन्ध भी क्या-क्या अनर्थ नहीं करता ? कैसे हैं यशोधर महाराज? जिसका मन निर्दय
१. दृष्टान्ताक्षेपालंकारः। २. जातिमात्रालंकारः । ३. जातिरलंकारः । ४. समुच्चयालंकारः ।