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________________ पतुर्थ आश्वासः धमिरज्ञानसंबन्धश्चेति, कर्कशोदकवितर्फकर्करसंपातस्तिमितचेताः क्षणमात्रमितिकर्तव्यताविमूढममाश्रीता इव मूत्वेदमवाचौल--प्रसोदाम्ब । ववामि किचिदहम्, यदि तत्र भवती मयि तुष्युत्रापवावपरागं न विकिरति । माता-पुत्र, मैवं ममि शरिष्का। प्रतिष्ठस्त्र ग्यायनिष्ठुरतया गोष्ठोसौष्ठवेषु । न खलु केवलमहं प्रसवधर्मिणी, कि तु भवपितुः प्रसाबारसकालव्यवहारवेदिनी च। यद्येयं युक्त एवं पूर्वपक्षः । यस्मात् 'न धर्माचरेत्, एष्यस्फतरवारसंशयितत्वाच्च । को छबालिशो हस्तगतं पावगतं कुर्यात् । बरमद्यफपोतः श्वोमयूरात् । वरं सांशपिकान्निएकादशियिकः कापिगः' हति महामस्तु लोके लोकायसिकलोशकोलाहलः । स धात्मनो गाविमरणपयस्ततामा सुघट एव । राजा सस्यं न धर्मः किमते यदि स्पावगर्भावसामान्तर एवं जीवः । म चंवम् । जाति-मराणामथ रक्षसां न वृष्टेः परं कि न समस्ति लोके (लोसः') ॥ ४५ ॥ उत्तर फल के विचाररूपी पाषाण के पतन से निश्चल है और जिसकी चित्त-संगति अल्पकाल तक कत्तंव्यनिश्चय में विमूढ़-सी है। हे माता! प्रसन्न होइए । मैं कुछ कहता हूँ, यदि उस वचन के कहने पर आप मेरे ऊपर कुपुत्र संबंधी निन्दारूप धूलि नहीं फेंकतों। इसके बाद यशोधर की माता कहा---हे पुष! तुम मुझ से इस प्रकार का भय मत करो। हे पुत्र । मेरी वार्ता-प्रारम्भ की प्रतिभा-शीलता में न्याय-निष्ठुरता पूर्वक पूर्वपमा करो। हे पुत्र! निश्चय से में केवल तुम्हें जन्म देनेवाली ही नहीं हूँ किन्तु आपके पिता की करुणा से समस्त व्यवहार को जाननेवाली है। अतः हे पुत्र ! मेरा पूर्वपक्ष करना उचित ही है, अतः ग्रशोधर की माता उसो वार्ता का प्रारम्भ करती है-जिस कारण हे पुत्र ! लोक में निश्चय से निम्न प्रकार नास्तिक दर्शन विशेषरूप से है-यथा 'घों का आचरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्माचरण में भविष्यकालीन फल है। वर्तमान काल में धर्माचरण का फल दृष्टि गोचर नहीं होता। इतना ही नहीं, अपि तु-धर्माचरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि संशयित्वात् । अर्थात्- यह नहीं जाना जाता कि धर्माचरण से फल मिलेगा? अथवा नहीं मिलेगा? इस प्रकार का सन्देह होने के कारण भी धर्माचरण नहीं करना चाहिए अब उक्त विषय को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं। निश्चय से कौन विद्वान् पुरुष हस्तगत सुवर्ण-आदि वस्तु को पादगत करेगा? अर्थात्-दोनों पैरों से ग्रहण करेगा? अभिप्राय यह है कि हाथ निकटवर्ती हैं और पैर तो दूरवर्ती हैं, अतः जिस प्रकार निकटवर्ती हायों में प्राप्त हुई सुवर्ण-आदि वस्तु को विज्ञान दूरवर्ती पेरों से धारण नहीं करता उसीप्रकार प्रत्यक्ष फलवाले कामिनी-आदि भोग ही ग्रहण करना चाहिए और अदृष्ट-परांश-फलवाले धर्म का आचरण छोड़ देना चाहिए । कल प्रातःकाल प्राप्त होने वाले मयुर की अपेक्षा आज प्राप्त होनेवाला कबूतर श्रेष्ठ है। यद्यपि मयुर में मांस अधिक है और कबूतर में अल्प है तथापि भविष्य में प्राप्त होनेवाले विशेष मांसशाली मयूर को अपेक्षा आज वर्तमान में प्राप्त होनेवाला अल्प मांस-यूक्त कबूतर ही शोर है। अर्थात्-उसी प्रकार भविष्य में स्वर्गादि विशेष फलशाली धर्म की अपेक्षा वर्तमान में अल्प फलवाली जवानी व कमनीय कामिनी-आदि उपभोग वस्तुएं हो श्रेष्ठ हैं । सन्देह-युक्त २१६ तोला परिमाणवाले सुवर्ण सिक्के या सुवर्णमयी हृदय-भूषण ( हार ) की अपेक्षा रत्तीभर तोल का निश्चित सुवर्ण श्रेष्ठ है । जब आत्मा गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त हो है तब वह नास्तिक दर्शन युक्ति-युक्त ही है । फिर यशोधर महाराज ने कहा हे माता ! तेरा वचन सत्य है परन्तु यदि जीव ( आत्मा ) गर्भ व मरण के मध्यवर्ती ही होता १. 'पर: किन समस्ति लोकः' ह. लि. ( क ) प्रती पाठः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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