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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
स्वयं कृतं जन्तुषु कर्म नो चेत्समः समस्तः खलु किन लोकः । भूतात्मकं चित्तमिदं च मिथ्या स्वरूपभेदात्पवनावतीव ॥ ४६ ॥ एवं चेदमपि संगच्छते
यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः प्राप्तिम् । व्ययति शास्त्रमेतसमास प्रयाणि दीप इव ॥ ४७ ॥
नवं ययश्वास्तरास्तरुण्यो रम्याणि हम्र्याणि शिवरः प्रियश्च ।
एतानि संसारतरोः फलानि स्वयं: परोऽस्तीति मृषच वार्ता ॥ ४८ ॥ dreaषां पुनरेक एव स्वर्याय यन्नास्ति जगत्युपायः । तत्संभवे तत्त्वविधां परं स्यात्खेवाय देहस्य तपः प्रयासः ।। ४९ ।।
सब धर्म नहीं किया जाता परन्तु यह बात नहीं है । अर्थात् — जीव गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ही नहीं है । अब उक्त बात को आक्षेप ( दृष्टान्त ) द्वारा समर्थन करते हैं - निश्चय से क्या लोक में जाति स्मरणवाले पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होते ? अर्थात् - यदि जीव, गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त ही होता तब जाति स्मरणवाला पुरुष क्यों इसप्रकार कहता है । 'में पूर्व जन्म में इसप्रकार ( अमुक कुल में अमुक रूप से उत्पन्न होनेवाला ) हुआ था ।' अथवा पाठान्तर में जब जाति स्मरणवाले पुरुष दृष्टिगोचर हो रहे हैं तब क्या परलोक | पूर्वजन्म ) नहीं है ? एवं क्या निश्चय से लोक में राक्षस ( व्यन्तर ) दृष्टिगोचर नहीं होते ? अर्थात् - किसी का पिताआदि भरकर राक्षस हुआ श्मशान भूमि में जन्म धारण करता हुआ सुना जाता है । यदि गर्भ से लेकर मरण-पर्यन्त ही जीव होता तब व्यन्तर किस प्रकार हुआ ? अथवा पाठान्तर में जब पुरुष मरकर राक्षस हुए सुने जाते हैं तब क्या परलोक - (भविष्यजन्म) नहीं है ? अपितु अवश्य है । सारांश यह है उक्त राक्षसों के दृष्टान्त से भविष्य जन्म सिद्ध हुआ समझना चाहिए ||४५ || यदि प्राणियों का स्वयं उपार्जित किया हुआ पुण्य च पापकर्म नहीं है तो निश्चय से समस्त लोक समान ( सदृद्दा ) क्यों नहीं होता ? अर्थात् — फिर राजा किङ्कर, गुरु, शिष्य, धनाढ्य व दरिद्र इत्यादि भेद किसप्रकार संभव होगा ? 'यह आत्मा पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चारों भूतों से निष्पन्न है' इसप्रकार को नास्तिक दर्शन की मान्यता मिथ्या है, क्योंकि इनमें स्वरूप- मेद वर्तमान है। अर्थात् — विज्ञान, सुख व दुःख-आदि गुणवान् जीव है और भूत ( पृथिवी, जल, अग्नि व बायु } अचेतन (जड़) होने के कारण जीवद्रव्य से भिन्न है। उदाहरणार्थ - जिसप्रकार वायु और पृथिवी द्रव्य स्वरूप भेद के कारण भिन्न-भिन्न हैं । अर्थात् – वायु चञ्चल स्वभाव-युक्त व पृथिवी स्थिर स्वभाववालो है | उसीप्रकार आत्मा चेतन ज्ञानादिगुणवान् है और पृथिवी आदि भूत अचेतन होते हुए वारण-आदि गुणसंयुक्त हैं ||४६ ॥
जब इसप्रकार उक्त भेद सिद्ध है तभी निम्नप्रकार आर्याच्छन्द जन्मपत्रिका के आरम्भ में लिखा जाता है - इस जीन ने पूर्व जन्म में जो पुण्य-पाप कर्म उपार्जित किये हैं, भविष्य जन्म में उस कर्म के उदय को यह ज्योतिशास्त्र उसप्रकार प्रकट करता है जिसप्रकार दीपक अन्धकार में वर्तमान घटपटादि वस्तुओं को प्रकट ( प्रकाशित ) करता है। अर्थात् - जब पूर्वजन्म का सद्भाव है तभी ज्योतिःशास्त्र उत्तर जन्म के स्वरूप को प्रकट करता है। इससे जाना जाता है कि गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त ही जीव नहीं है, अपितु गर्भ से पूर्व व मरण के बाद भी है | १४७/१ पुनः यशोधर महाराज ने कहा- नवीन यौवन, विशेष सुन्दर युवतियाँ, मनोज महल और विशेष शुभ घनादि लक्ष्मिय, ये संसाररूपी वृक्ष के फल हैं। 'स्वर्ग भिन्न है' यह बात मिथ्या है, किन्तु यौवन, स्त्री व धनादि सुख सामग्री ही स्वर्ग है ॥४८॥ परन्तु इस यौवन, स्त्रीव धनादि सुख सामग्री में एक ही ( महान् ) दोष है, क्योंकि संसार में यौवन, स्त्री व चनादि सुख का कारण