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चतुर्थ आश्वास पृ० ४२ के सुभाषित पद्यों व गद्य का अभिप्राय यह है-यशोधर महाराज दीक्षा हेतु विचार करते हुए कहते हैं-"मैंने शास्त्र पढ़ लिए, पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया। याचकों अथवा सेवकों के लिए यथोक्त धन दे दिए और यह हमारा यशोमतिकुमार पुत्र भी कवचधारी वीर है, अतः मैं समस्त कार्य में अपने मनोरथ को पूर्ण प्राप्त करनेवाला हो गया है ।। २६ ॥ पंचेन्द्रियों के सार्श-आदि विषयों से उत्पन्न हुई मुख-तष्णा भी प्रायः मेरे मन को भक्षण करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि इन्द्रिय-विषयों ( भोगीपभोगपदार्थों) मैं, जिनकी श्रेष्ठता या शक्ति एकवार परीक्षित हो चुकी है, प्रवृत्त होने से बार-बार खाये हुए को खाता हुआ यह प्राणी किस प्रकार लज्जित नहीं होता ? || २७ ।। मेथुन क्रीड़ा के अन्त में होनेवाले सुखानुमान को छोड़कर दूसरा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है, उस सुख द्वारा यदि विद्वान् पुरुष गाए जाते हैं तो उनका तत्वज्ञान नष्ट ही है ।। २८ । इसके पश्चात् के गद्य-खण्ड का अभिप्राय यह है कि 'मानव को वाल्यावस्था में विद्याभ्यास व गुणादि का संचयरूप कर्तव्य करना चाहिए और जवानी में काम-सेवन करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का अनुष्ठान करना चाहिए ! अथदा अवतार के अनुसार काम-सादि सेवन करना चाहिए। यह मो वैदिक वचन है परन्तु उक्त प्रकार की मान्यता सर्वथा नहीं है; क्योंकि आयु अस्थिर है। अभिप्राय यह है, कि उक्त प्रकार की वैदिक मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि जीवन क्षणभङ्गर है अतः मृत्यु द्वारा गृहील केशसरीखा होते हुए धर्म पुरुषार्थ का अनुष्ठान विद्याभ्यास-सा वाल्यावस्था से ही करना चाहिए।
यशस्तिलक संबंधी घार्मिक प्रसङ्ग यशस्तिलक की कथावस्तु वाण की कादम्बरी और धनपाल को तिलकमञ्जरी की तरह केवल आख्यान मात्र नहीं है, किन्तु जैन और जैनेतर दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों का एक सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ भी है। इसके साथ ही इसमें तत्कालीन सामाजिक जीवन के विविध रूप भी वर्णित हैं। कथा-भाग में भी सोमदेव ने जैन तत्वों व सुभाषितों का भी समावेश किया है। यशस्तिलक का चतुर्थं आश्वास विशेष महत्व पूर्ण है । क्योंकि इसमें कवि ने यशोधर और उसकी माता के बीच में पशुबलि-आदि विषयों को लेकर वार्तालाप कराया है। यशोधर जैन धर्म में श्रद्धा रखता है और उसकी माता ब्राह्मण धर्म में। इस सन्दर्भ में यशोधर वैदिकी हिंसा का निरसन करता हुआ अनेक जैनेतर शास्त्रों के उद्धरणों द्वारा जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध करता है।
(देखिए वैदिकी हिंसा का समर्थन पृ० ५० श्लोक ४१-४४) तत्पश्चात् यशोधर कहता है कि 'हे माता! निश्चय से प्राणियों को रक्षा करना क्षत्रिय राजकुमारों का श्रेष्ठ धर्म है, वह धर्म, निर्दोष प्राणियों के घात करने से विशेष रूप से नष्ट हो जाता है।
यः शस्त्रवृत्तिः समरे रियु: स्याधः कण्टको वा निजमाइलस्प । ____ अस्त्राणि तत्रैव नृपः क्षिपम्ति म दोनकानीनशुभाशपु ॥ ५५ ॥
अर्थात्-जो शत्रु युद्धभूमि पर शस्त्र धारण किये हुए है, अथवा जो अपने देश का कांटा है, अर्थात् जो अपने देश पर आक्रमण करने को उद्यत है, उसी शत्रु पर राजा लोग शस्त्र प्रहार करते हैं। न कि दुर्बल, प्रजा पर उपद्रव न करने वाले और साधुजनों के ऊपर शस्त्र-प्रहार करते हैं ॥ ५५ ॥ इत्यादि पृ. ५४-५६ तक यशोधर ने अनेक जैनेतर शास्त्रों के उद्धरणों द्वारा जीव हिंसा व मांस भक्षण का विरोध किया। इसी प्रकार उसने अनेक जैनेतर शास्त्रों के आधार से जैनधर्म की प्राचीनता (पृ. ६३-६४ तक ) सिद्ध की।
पश्चात् यशोधर ने माता के समक्ष वैदिक समालोचना । पु. ६६ श्लोक नं. १२. से १२८ तक ) की।
चतुर्य आश्वास' (पृ.८२-८३ श्लोक नं. १७२-१८७ ) के नी सुभाषित पद्यों में कूटनीति है। १. समुभायालंकार । २. ३. दृष्टान्ताकार ।