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________________ यथास्तिलक पम्पूकाश्ये विलुप्तकुन्तलालापा, भयऊनमतिरिव विभ्रमभ्रशिदर्शना, हिमोन्मथिता कमलिनोव सामच्चायापध'ना, शबिर बोलपयोषरभरा, खट्वाकरडाकृतिरिव प्रकटकोकस निकरा सकलसंसारखव्यावृत्तिनीतिमू तिम्तो राम्यस्थितिरिक विवेश । पुष्पदन्तहत्यकन्वलो ल्लासमसुमती सुरती। वारिषेशोऽवषार्य मित्र, सेयं तव प्रणमिनो यन्निमितमयापि * संपद्यसे मनो मुनिरिति । एताविषकायास्तव भ्रातृजायाः, तते च वयं तय समक्षोवर्ष समाचरिताभिजातजनोबितवरिताः। पुष्पदन्तः स्नानानुलेपवसनामरणप्रसूनताम्बूलवासविषिना क्षणमात्रमेतत् । आधे पभाषसुभगे बपुरङ्गनानां नैसगिसी तु किमित्र स्थितिरस्य वाध्या ॥२४॥ इस्पसंशयमाशय स्त्रैणेषु सुखकरगषु विचिकित्सासम्जा लगाभिनीय' 'हही “निझामनिरुद्धमकाव. वर्ण वाले अम्बर ( आकाश ) में संचार करनेवाले विस्तार वाली होती है। जो वैसी विलुप्त ( अस्त-व्यस्त ) केश-समूह वालो है जैसी तपोलक्ष्मी विलुप्त । उत्पादित-उखाड़े हुए ) का समूह वाली होती है। जो वेसी विभ्रम ( विलास-सौन्दर्य ) से शून्य दर्शन वाली है जैसे भष्यप्राणी की बुद्धि विभ्रम ( मिथ्याज्ञान ) को नष्ट करनेवाले सम्बग्दर्शन से अलङ्कृत होती है। जो सो क्षामच्छायापघना ( म्लानकान्ति-युक्त शरीरवाली) है जैसी पाले से पोड़ित हुई कमललता म्लान कान्तियुक्त पत्र-पुष्पादि अवयवों वाली होती है। जैसे शरद ऋतु दीन (दरिद्रनिर्जल ) पयोधर-समूह ( मेघ-समूह ) वाली होती है वैसे ही जो दीन ( शिथिल ) पयोधर समूह ( कुच-समूह ) वाली है। जैसे अनबुड़ी खाट की आकृति प्रकट दिखाई देनेवाले कीकसों ( कोड़ों के समूह वाली होती है वैसे ही जिसके कीकस-समूह ( हड्डियों की श्रेणी) प्रकट दिखाई देते थे। जो ऐसो मालम पड़तो थी-मानोंसमस्त सांसारिक मुखों से पराङ्मुखता ( उदासीनता ) की नीति वाली मूर्तिमती (स्त्री-रूपधारिणो ) वैराग्यस्थिति ही है और जो पुष्पदन्त के हृदयरूपो पल्लव के उल्लास ( प्रमोद ) के लिए पृथिवी-सरीखी है । सुदती को जानकर वारिषेण ने कहा-'मित्र ! यही तुम्हारी वह प्रियतमा है, जिसके निमित्त से अब तक भी बारह वर्ष बीत जाने पर भी-तुम भाव साधु नहीं हुए और ये सब सामने दिखाई देने वाली मनोज्ञ शरीर वालो तुम्हारी भोजाइयाँ हैं एवं ये हम हैं, जिन्होंने तुम्हारे समक्ष चारित्र की उन्नतिपूर्वक कुलीन पुरुषों के योग्य निर्दोष चारित्र पालन किया है, अर्थात्--मेरी स्त्रियाँ विशेष सुन्दर हैं तो भी उन्हें छोड़कर मैंने निर्दोष चारित्र पालन किया और तुम कुरूप स्त्री को देवी-सरोखो समझकर हील चारित्र वाले हुए हो। इस प्रकार वारिषेण ने पुष्पदन्त को तिरस्कृत किया। तत्पश्चात् पुष्पदन्त ने निम्न प्रकार निस्सन्देह विचार किया यह स्त्रियों का शरीर, स्नान, सुगन्धित वस्तु का लेप, मनोज्ञ वस्त्र, आभूषण, पुष्प, ताम्बल व वासन धूपनादि विधि से अन्य दूसरो सुगन्धि वस्तुओं के आरोपण से क्षणमात्र के लिए सुन्दर प्रतीत होता है परन्तु इस शरीर को स्वाभाविक स्थिति ( रस व रक्त-आदि सप्तधातुं-युक्तता ) कहने योग्य नहीं है, अर्थात्-यह अत्यन्त असमीचीन है ।। २०४ ।। __इसके बाद उसने स्त्री सम्बन्धी क्षणिक सुख के कारणों में ग्लानि-युक्त लज्जा को प्राप्त करके कहा १. देहा। २. खट्वाङ्गमेव कारतः वाणदोरहौरहिता वाटल । ३. अस्थि। ४. पल्लव । ५ वासनष्पनादि । ६. सुगन्धवस्तुनारोपणेन क्षणमात्रसुमगमगं । ७. अस्य अङ्गस्य नैसर्गिकी स्वाभाविकी स्थितिर्नवाच्या निवर असमीचीनेत्यर्थः । ८. विचिन्तय । १. प्राप्य । १०. अतिशयेन ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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