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________________ षष्ठ माश्वासः वारिषेणस्तस्प तथा प्रस्थानात्कृतोदकं वितरप अवश्यमय जिनकपं मिहासुरिव सोस्सुक्यं विषमते, तदेष कपापमुष्यमाणधिषणः समयप्रतिपासनाधिकरणनं भवत्युपेशणीपः' इत्यनुध्याया डा समनुष"प्यंत स्थापनाय जनकमिशेत न अगाम । चेलिनीमहादेवों पुत्रं मित्रेण सतत्र मुपोकमा नमवश्य तवभिप्रामपरीक्षार्थ सरा" विराग चासनमयच्छत् । वारिषेणस्तेन समं चरमोपना विष्टरमलंकृत्य 'अम्ब', समातूयन्तां समस्ता अप्यात्मीयाः *नुषाः' । तबतु वनवसा हर प्रसनोत्तंसोत्तरतिफन्तलारामाः, कल्पलता इब मणिभषणरमणीयावनिर्गमाः प्रायष इव "समाजपयोषराबिया मध्यभागाः, सकलजगहलावण्यललिपिलिखिता इय सुभगभोगायतनाभोगा: कलिल' काननक्षितयाइव १७पारपल्ला वोल्लासितविहारविषयाः, कमलिन्य इव मणिमयमजीरमाणितोमव मरा२लमण्डलस्खलितचलन जलेशया, स्वकोपरूपसंपत्तिरस्कृतविभवन रामारामणीयका: सलोलमहमहमिकोत्सुकाः समारय समन्तात्परिबवुः पुण्यदेवता इव ताः स्पवासिन्यः २३ । 'अम्ब, मभ्रातृमाया सुबत्यप्माकार्यताम्' । ततः संध्येव २ घातुरक्ताम्बरधराटोपा, तपाषीरिष ऐसा विचार करके बारिषेण मुनि शीघ्र मार्ग रोककर इसे मुनिधर्म में स्थापित करने के लिए अपने पिता श्रेणिक राजा के निवास स्थान पर गए। चेलिनी रानी ने अपने पुत्र चारिषेण को मित्र के साथ आते हुए देखकर उसके मन के अभिप्राय की परीक्षा करने के लिये रागियों के योग्य आसन ( पलङ्ग-आदि ) और वैरागियों के योग्य आसन (मासन प्रदान किये। याविण नुनि अपने मित्र के साथ वैरागियों के योग्य बासन ( घटाई ) पर बैठ गए और कहा–'माता! आपनी समस्त पुत्र-वधुओं को बुलाओ।' बाद में ऐसी सभी पूर्ण युवती बारिषेण की पलियों ने परस्पर के अहंकार से उल्कण्ठित होकर बिलास के साथ आकर उन्हें चारों ओर से वेष्टित कर लिया, जिनका केशपाश रूपी बगीचा वैसा पुष्परूपी शिरोभूषणों से वृद्धिंगत था जैसे बनदेवता पुष्परूपी शिरोभूषणा से वृद्धिगत बगीचे वालो होती है। जिनके अङ्गों के निकास मणिमय आभूषणों से वैसे मनोज्ञ हैं जैसे कल्पलताएँ मणि-सरीखे ( शुभ्र ) पुष्परूपी आभूषणों से मनोज्ञ होती हैं। जिनका मध्यभाग ( कमर ) पैसा उन्नत पयोधरों ( कुच कलशों) से आविद्ध ( झुका हुआ ) है जैसे वर्षा मत विशाल पयोधरों मेघों से आच्छादित आकाश के मध्यभाग वाली होती है। जिनका विस्तत शरीर ऐसा सुन्दर है-मानों-समस्त लोक के सौन्दर्य को अंशरूप लिपि से लिखी गई हैं। जिन्होंने बिहार विषयों (लोला. प्रदेशों ) को पादपल्लबों ( चरणरूपी किसलयों ) से वैसा सुशोभित किया है जैसे अशोक वृक्षों की वन भूमियो बिहार विषयों ( उद्यान-प्रान्तों) को पाद ( मुल से लेकर ) किसलयों से सुशोभित करती हैं। जैसे कमललताएँ रत्नमयो नूपुरों के शब्द-सरीखा शब्द करने वाले मतवाले हंस-समूह से चलित कमलों वाली होती हैं वैसे ही जिनके चरणकमल रत्नमयो नूपुरों की मधुर सङ्कार ध्वनिरूपी मतवाले हंस-समूह से चलित हो रहे हैं। जिन्होंने अपनी रूपसम्पदा से तीन लोक को नारी जनों को सुन्दरता तिरस्कृत की है और जो पुण्यदेवता-सरीखी हैं। इसके बाद बारिषेण ने कहा-'माता ! मेरी भ्रातृ-वधू सुदती को भी बुलाइए।' मत- ऐसी सुदती भी वहाँ प्रविष्ट हुई। जो वेसी गेरुआ रक्त अम्बर ( वस्त्र ) से चञ्चल विस्तारवाली है जैसी संध्या लोहित १. अभिप्रायायति । २. त्यक्तुमिच्छुः । ३. स्त्रीलोभ । ४. शीघ्र। ५. मार्ग झवा। ६. एतस्य स्थापनं । ७. अंगिकावास। ८. आगच्छन्त । ९. मञ्चकादिक 1१०. वीतरागासनं । ११. है मातः । *. बध्वः । १२, सन्नत । १३. आभुग्नो निर्भरं वा । १४. शरीरे । १५. अशोकवृक्ष । १६. भूमयः। १७. पादाः चरणाः पझे मूलं । १८. पान्दित । १९. हंसः । २०. चलना एव जलेदायानि यासां ताः1 २१. नारीजन । २२. किंचित् प्रौढाः । २३. भ्रातृपलो। २४. गेरूरजवस्त्रेण चरः चपल: आटोपो यस्याः सा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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