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________________ २५४ यास्तिलक चम्पूकाव्ये लीलाविलासविलसन्नयनोत्पलाया. स्फारसारोत्तरलितापरपल्लवायाः । उत्तुङ्गपीवरपयोषरमण्डलामास्तस्या मया सह कदा ननु संगमः स्यात् ॥२०२।। कि। चित्रालेखनकर्मभिर्मनसिज'व्यापारसारामृतताभ्यासपुर स्थित प्रियतमापावप्रणामत्रामः । स्वप्ने र संगमविप्रयोगविषयप्रीत्यप्रमोदागर्मरित्यं वेषमुनिविनानि गमयत्युस्कम्ठितः कानने ॥२०३।। इति निर्बन्धन ध्यायगडावशसमा समानषीत् । शूरवेषभट्टारकोऽप्याभ्यां सह तेषु तेषु विषयेषु सोकृता पञ्च कल्याणमङ्गलामि स्मानानि बन्दिरमा पुनविहारवशातच जिनायतनोससितोपान्तलसूले पञ्चशैलपुरे समागत्यात्मनो वारिषण ऋषेश्च तहिवसे पर्युपासितो वासस्वातं पुष्पदन्समेकाकिनमेव प्रत्यवासानाया विदेश । तवर्थमाविष्टेन च तेन' चिन्तितं घिरात्मालास्सस्पेकस्मादपमृत्योर्जीवन्नुव धृतोऽस्मि । संप्रति हि मे नूनमननानि गुण्याल्पवेक्ष्य वीजा मुमुलगा मक्ष पाशपरिक्षेपक्षरितेनेव पक्षिणा पलायितुभारम्पम् । ॥ २०१॥ ऐसो उस प्रिया का मेरे साथ निश्चय से कब समागम होगा? जिसके नेवरूपी नीलकमल लीला (हाव-भेद ) व बिलास ( सौन्दर्य ) से सुशोभित हैं। जिसके ओष्ठ पल्लव बढ़े हए काम के वेग से चञ्चल हे और जी उन्नत व कड़े कुचमण्डल वाली है ।। २०२ ।। मुनिवोपी पुष्पदन्त अपनी प्रिया में उत्कण्ठित हुआ जंगल में इस प्रकार दिन व्यतीत करता था। उदाहरणार्थ-वस्त्र में प्रिया के चित्र-लेखन कार्यों से, कामदेव के व्यापारों के उत्तम पदार्थों के स्मरणों से, दृढ़ भावना से सामने खड़ी हुई प्रियतमा के चरणों में नमस्कार के क्रमों स और स्वप्न में प्रिया का संगम होने से सुख की प्राप्ति व स्वप्न में प्रिया का त्रियोग होने से दुःख की प्राप्ति से ।। २०३ ।। एक बार शुरदेव नाम के आचार्य भी अपने शिष्य बारिषेण व पुष्पदन्त के साथ विविध देशवर्ती तीर्थङ्करों के पंच कल्याणकों के माङ्गलिक तीर्थ स्थानों की बन्दना करके घूमते घूमते उसी राजगृह नगर में आए, जिसके निकटवर्ती पर्वत-शिखर जिन-मन्दिरों से सुशोभित हैं। उस दिन आचार्य ने व वारिषेण मुनिराज ने उपवास धारण किया था, अत: उन्होंने पुष्पदन्त को अकेले ही जाकर आहार करने की आज्ञा दे दो। आहार के लिए आज्ञा प्राप्त करनेवाले पुष्पदन्त ने विचार किया-'निस्सन्देह चिरकाल के बाद में एक अपमृत्यु से जीवित रहकर उद्धार वाला हुआ हूँ| आज मेरे प्रचुर पुण्य का उदय है। फिर दीक्षा को छोड़ने के इच्छुक हुए उसने वैसा शोघ्र भागना आरंभ किया जैसे जाल के आवरण से निकला हुआ पक्षी शीघ्र भागना आरंभ करता है। - इसके बाद वारिषेण ने उसे इस तरह प्रस्थान करते हुए देखकर उसका भविष्य कालीन अभिप्राय जानकर विचार किया। यह अवश्य हो जिन दोक्षा छोड़ने का इच्छुक-सा जान पड़ता है, इसीलिए यह उत्कण्ठा के साथ भाग रहा है।' इसकी बुद्धि स्नोलोभ से अपहरण की जा रही है, अतः जिन शासन की रक्षा का भार पहन करने वालों को इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। १. काम। २. 'सारास्मृतः' मु. एवं 'स्व' प्रती पाठः। ३. यदा स्वाने संगमा भवनि, तद्विषये प्रोत्यागमा भवति, यदा तु स्वप्ने विप्रयोगा भवति, तद्विषये अप्रमोदागमो भवति । ४, आग्रहण । ५. वर्षाणि । ६. राजगृहे । ७. सेवित । ८. प्रत्यवसानं भोजनमिति यश. पं. । ९. पुष्पदन्तेन । १०. दीक्षां मोमिच्छना ११. शौन।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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