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________________ षष्ठ आश्वासः २५३ मेतवायतनानुगमनेन स्वामिपुत्रस्वात्प्रतिपत्रमहामुनिरूपत्वा वाचरिताभ्युत्मानं हस्तेनावलम्म्य पुन: 'अतोनय प्रदेशान्। व्यावर्तयिष्यत्ययं भगवान्' इति सहानुसरन्तभवाप्तवन्तं च गुस्यान्तं, "भवन्त, एष खलु महानुभावतालसालम्बनतरुः स्वभावेनंव भयभीव गानुभचने विरक्तचित्तः सर्वसंयतवृत्तार्थी भगवत्पादमूलमापातः' इति सूचयित्वा भगवतोऽम्य कामरिकलिकाबहभामिय पूधंजनिकरमपनाम्य दीक्षा प्रामामास । सोऽपि तबुपरोषाक्षेपापीक्षामादाय हमस्याविस्तिवेवितव्यरत्रावनङ्ग अहमसितत्वार पम्जरपात्रः एतत्त्रीष' मन्त्रविकोलितप्रभावः पूषाफुरिव गाढबन्धनालानितो घ्यालशुषहाल इव चाहनिय वारिषेण ऋषिणा रयमाणोऽपि अलफवलपरम्य चूसतानतंकान्तं नवनपनाविलासं चारुगण्डस्थल छ । मधुरवचनगर्भ स्मेर बिम्बाधरायाः पुरत इव समास्ते सन्मुख मे प्रियायाः ॥२..।। कर्णावतंसमुखमजनकण्ठमूषा वक्षोजपत् अजनाभरणानि यमात् । पावेष्वलक्तकरसेन च सर्वनानि कुर्वन्ति ये प्रणयिनीषु त एवं धन्याः ॥२०१॥ के मुनि हो जाने पर भी बाल्यकाल में उनके साथ धूलि में क्रीड़ा किया हआ होने से एवं चिरकालीन परिचय होने से उत्पन्न हुए प्रेम से वारिषेण का प्रिय मित्र था, जिसका नवीन विवाह होने से कङ्कण-बन्धन किया गया था। जो उन्हें देखकर इसलिए खड़ा हो गया था, कि ये स्वामी के पुत्र हैं तथा महामुनि का रूप धारण किये हुए हैं, एवं जो यह सोचता हुआ उनके साथ जा रहा था, कि 'यह पूज्य मुझे अमुक स्थान से लौटा देंगे।' और जो गुरू के पास पहुंच गया था । इसके बाद वारिषेण मुनिराज ने गुरु को निम्न प्रकार सूचना दो---'भगवन् ! सज्जनतारूपी लता के आक्ष्य के लिए वृक्ष-सरोग्खा यह पुष्पदन्त स्वभाव से ही संसार से भयभीत हुआ है और इसका चित्त भोगों के भोग से विरक्त हो गपा है, अतः महावत धारण करने की इच्छा से आपके पादमूल में आया है।' इसके बाद बारिषेण मुनि ने दीक्षा गुरु के पास में कामदेवरूपी हाथी के लिए केला के पत्तों के समूहसरीखे केश-समूह का लुऊचन कराकर उसे दीक्षा ग्रहण करा दी। पुष्पदन्त ने भी वाघिण मुनि के आसह के वश से दीक्षा ग्रहण कर ली परन्तु उसका मन तत्वज्ञानी न होने से और कामदेवरूपी पिशाच से ग्रसित होने के कारण पोंजरे में स्थित हुए पक्षी को तरह और मन्त्रशक्ति से कीलित प्रभाव वाले सर्प की तरह एवं मजबूत बन्धन की खूटी से बँधे हुए दुष्ट हाथो-सरीखा पराधीन हुआ दिन-रात वारिषेण ऋषि द्वारा रक्षा किया जा रहा था तथापि उसने निम्न प्रकार अपनी प्रियतमा का आग्रहपूर्वक ध्यान करते हुए बारह वर्ष व्यतीत कर दिए । मन्द मुस्कान व विम्बफल-सरीखे ओठों वाली मेरी प्रिया का वह मुख मेरे सामने मौजूद हुआ-सा मालूम पड़ रहा है, जो कि केवा-पाशों से सुन्दर है। जो अकुटियाँ रूपी लताओं के नृत्य से रमणीक है। जो नये नेत्रों के विलासवाला है। जो मुन्दर गालों की स्थली वाला है और जिसके मध्य मीठे वचन वर्तमान हैं ॥ २०० ॥ जो मानव प्रेम से अपनी प्रियाओं को निम्न प्रकार आभूषणों से अलङ्कृत करते हैं वे हो भाग्यशाली हैं-कानों के आभूषण ( एरन व कर्णफूल-आदि), मुख का आभूषण, कण्ठ का आमूपण, ( कण्ठमाल व हारआदि ), कुचकलमों पर पत्वरचना, जवाओं का आभूषण ( करधोनी-आदि ) और चरणों में लाक्षारस का लेप १. 'सर्वसंमतवृत्त्यर्थी' ० । २. पञरस्थः । ३. पक्षिवत् । ४. सर्पवत् । ५. दुष्टगजवत् । ६. 'बारिषेण ऋपिणा' इत्यत्र 'ऋत्यकः इत्यनेन प्रकृतिभावान्न सन्धिः। ७. ईषशास।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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