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________________ २० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये प्रणयकोपसंधितानुरागमनुनयोपचारद्विगुणितस्नेहसङ्गमन्योन्यकलाकौशलोपधितरसधेगममर्यादमुल्लासक्रमापदमनपेक्षितवपुःखेगमपुनर्लम्यमिवापश्चिमं तया सह संवैशसुखमनुभूय, उपान्तयन्नपुत्रिकोत्क्षिप्यमाणपजनपचनापनीयमानसुरतषमः, गलिते नितम्बदेशारकाचोगुणमण्डने निलम्विन्याः । नखरेख: पुनरधिको शोभा मनयन्ति जघनस्य ॥ ४ ॥ भवति कचप्रयोगात्सरलत्वं कुन्तलेषु युवतीनाम् । सन्निक्षेपविरिष कुटिलाः श्वरसास्तु जायन्ते ॥ ५॥ बन्सलतमिदमघरे रमणीनां नेसि मन्मनः किं तु । मन्मथतरोग्यं पल्लवोल्लासः ॥६॥ पशुवि लाक्षाराग: कमलमपरे ध मण्डनं कुरुते । दिग्यासस इव चित्रा वृत्तिमंचनस्य विपरीता ॥ ७ ॥ रमपलि मनो नितान्तं स्वेचोद्गमबिम्नुमचरीलालम् । लग्मित हब कुधमध्ये प्रषिवासि हारः पुरन्धीणाम् ॥ ८ ॥ उरसि नखक्षतपंक्तिनितानां भाति सरसविनिवेश । स्मरशरपाल्पविनिर्गममनितः प्रापेग मार्ग इव ॥ ९ ॥ प्रकार मैंने उस प्रिया के साथ कमलिनीसर परिणाम स्मरमतिर में सुरा को हार कासमुन्न का अनुभव किया। उस अवसर पर में क्षरण करता हुआ-सा, तन्मय होता हुमा-सा, उसके मध्य प्रदोश करता हुआसरीखा, उसमें प्रविष्ट हुआ-सा तथा अपने को उस विशेष सुख में प्राल कराता हुआ-सरीखा प्रतीत हो रहा था। हे मारिदत्त महाराज ! मैंने उस प्रिया के साथ कैसे कामसुख का अनुभव किया? उन-उन प्रसिद्ध कामदेव के रस प्रवाहों द्वारा व प्रणयकोप द्वारा जिसमें अनुराग बुद्धिंगत किया जाता है। जिसमें मानव-व्यवहार द्वारा प्रेम का सङ्ग द्विगुणित किया गया है। जिसमें परस्पर के कलाचातुर्य द्वारा राम-वेंग वद्धिगत किया गया है। जो बेमर्याद है। जिसमें अपनी स्थिति के स्थान का अतिक्रमण किया है। जिसमें शारीरिक कष्ट की गणना नहीं की गई और जो अपश्चिम–अत्यन्त है एवं जो पुनः प्राप्त न होने योग्य सरीखा है। उस अवसर पर में ऐसा था जिसका संमोग-खेद समीपवर्ती अथवा दोनों पार्श्व भागों में वर्तमान कला पुतलियों द्वारा प्ररित की जानेवाली पंखों को बायु से दूर किया जा रहा था। जब निम्बिनी (कमनीय कामिनी ) के नितम्बदेश से करधोनी रूपी आभूषण खिसक जाता है तब जवाओं को नखरेखाएँ फिर भी अधिक शोभा उत्पन्न करती हैं ॥मा युवती स्त्रियों के केशपायों को मुष्टि द्वारा ग्रहण करने से केशों में सरलता हो जाती हैं और श्वास कुटिल हो जाते हैं। इससे ऐसा मालूम पड़ता हैमानों-केशों की कुटिलता के त्याग के दुःख से ही श्वास कुटिल हार हैं। 11५|| रमणियों के मोटों में वर्तमान यह प्रत्यक्ष दिखाई देता हुआ दन्तक्षत ( व्रण नहीं है, फिर क्या है ? मेरा मन यह कह रहा है कि भद्र द्वारा पूर्व में भस्म किये हुए पश्चात् उत्पन्न हुए कामदेवरूपी वृक्ष का यह प्रवालों का उल्लास ही है" |६|| नेत्रों में लगा हुआ लाक्षारस ( अलक्तक या ताम्बूलरस ) और ऑष्ठ में कज्जल शोभा को धारण करता है। अभिप्राय यह है कि पुरुप ने स्त्री के नेत्रों का चुम्बन किया, अतः उनमें लाक्षारस या ताम्बूलरस लग गया । इसीप्रकार १. ध्वन्यलंकारः । तथा चोकम्-'अन्यार्थवानकर्यत्र पदरन्यार्थ उच्यते । सोऽलंकारो ध्वनि यो वक्तुराशयसूचनातू ।' सं०टी० पु. ३६ से संचालित-सम्पादक २. क्रियासमुच्चयालकारः। ३. संयुक्ताङ्गाररसः । ४. उत्प्रेक्षालंकारः । ५. अपहृसिरलंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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