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________________ पंछ आश्वासः २८९ शुखमार्गमतोद्योगः शुद्धचेतोवचोवतः । शुखान्तरात्मसंपन्नो हिसकोऽपि न हिंसकः ॥ २५४ ।। पुष्पायापि भवेतुःख पापायापि भवेत्सुखम् । स्वस्मिन्न-पत्र या नीतचित्य चित्तचेष्टितम् ॥ २५५ ॥ 'सुखदुःसाविधातापि भवेत्पापसमाषयः । पढीमध्यविनिक्षिप्तं वासः स्यान्मदिनं न किम् ॥ २५६ ॥ ये प्राणी अपने-अपने कर्म के उदय से जीव या मरें, किन्तु जो मानव अपना मन विशुद्ध (कषाय-रहित ) करता है वह अहिंसक है और जो अपने मन को अशुद्ध ( कषाय-पुक्त ) करता है, वह हिंसक और पापी है। जो शुद्ध मार्ग ( सदाचार-मार्ग ) में प्रयत्नशील है, जिसका मन, वचन व काय शुस है एवं जिसको अन्तरात्मा शुद्ध ( कापायभाव से कलुषित नहीं ) है, वह हिंसा करके भी हिंसक नहीं है । भावार्थ-अमृतचन्द्राचार्य अपने 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ में लिखते हैं कि 'राग, द्वेष व मोहादि, दुर्वासनाओं को त्याग कर अपने भावों को विशुद्ध रखते हुए दूसरे प्राणियों की रक्षा करना या यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना अहिंसा है और इसके विपरीत आल्मिक सुख-शान्ति को भङ्ग करनेवाले रागादि दुर्भावों से अपने या दूसरों के प्राणों को घात करना या दिल दुग्जना हिंसा है । जो कषाय-वश यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति नहीं करता, उसके द्वारा चाहे जीव मरें अथवा न भी मरें तो भी वह हिंसा के पाप से बच नहीं सकता। ॥ २५३-२५४ ।। स्वयं को या दूसरों को दुःख देने से पुण्य कर्म का भी बंध होता है और मुख देने से पाप कर्म का भी बंध होता है, क्योंकि मन की चेष्टाएँ चिन्तवन के लिए अशक्य हैं। अभिप्राय यह है कि यदि तपश्चर्या व कार-सहन शुभ परिणामों से यथाविधि किये जाते हैं तो उससे पुण्य कर्म का बन्ध होता है, परन्तु यदि अशुभपरिणामों से किये जाते हैं तो उनसे पाप-बन्ध ही होगा। इसी तरह शुभ परिणाम से दूसरों को दुःख देने से पुण्य बन्ध होता है और अशुभ परिणामों से दुःख देने से पापबन्ध होता है, क्योंकि मन की चेष्टाएँ अचिन्त्य होती हैं ॥ २५५ ॥ भावार्थ-जेनदर्शनकार समन्तभद्राचार्य ने आप्तमीमांसा में इस विषय को विशद व्याख्या की है, उसे हम संकलित करते हैं. कुछ लोगों को मान्यता है कि दूसरे प्राणी को दुःख देने से पाप-बन्ध ही होता है और सुख देने से पुण्य-बन्ध होता है। परन्तु उक्त मान्यता सही नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो विष व शस्त्रादि दूसरों को दुःख देने में निमित्त हैं उन्हें पापबन्ध होना चाहिए एवं कषाय-रहित वीतराग दूसरे को सुख देने में निमित्त है उसे पुण्य बन्ध का प्रसङ्ग हो जायमा तो मुक्ति संघटित नहीं होगी। लोक में आपरेशान करने वाला डाक्टर भी बीमार को कष्ट देने में निमित है, तो उसे भी पापबन्ध का प्रसङ्ग हो जायगा ।। १॥ कुछ लोगों को मान्यता है कि अपने को दुःख देने से पुण्यबन्ध होता है और सुख देने से पापबन्ध होता है। ऐसा मानना भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने से तो वीतराग विद्वान् मुनि को भी पुण्य-पापकर्मों को १. धर्म परिणतः सावद्यलेशी बहु अघ्नन्नपि यचनात् । २. तपः कण्टादिकं तदपि विरुद्धमाचरितं कदाचित् पापाय भवति तेन एकान्तं नास्ति । ३. पापाय तदपि एकान्तं न । ४. परन्तु मनःप्रसारसहिंतः । तथा च समन्समद्राचार्य:-- पापं घवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाकषायो च वष्येयातां निमित्ततः ॥ १॥ पुष्यं ध्रुवं स्वतो दुःखास् पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां पुळ्यानिमित्ततः ॥ २ ॥ विशुद्धिसंकलेशाङ्ग चेत् स्वपरस्य सुखासुन्वं । पुण्यपापानघौ युक्तो ग चेयर्थस्तवाहतः ॥ ३ ॥ आप्तमीमांसा से संकरित-सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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