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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मगति नाम पप्रये । 'मुखामोरमाग छ प्रयोजनम् | तबलं ताम्बूलार्थमर्थव्ययेन' इति विचिन्त्य 'विष्णुतावचः कालपल्लीदसोत्तरास्वावचः कासयति । २'अर्षनागोवरः परिधारः कदाचिदपि हे हवपे वा न मनागपि विकुरुते' इति मत्वा न कमप्यूर्षपूरं पूरपति । "प्रसिचारकांश्चवं विक्षयति-'म तेलाचं लवणार्य वित्त व्ययितव्यम्', कि तु कापणं मा चावाय आपममुपडोश्य तवुभवं गृहीत्या पुनरिवं "ary न भवतीति प्रप्तिसमर्पयंस्तत्र मापे हिनिल्ला म्नमायाति तेन शारीरो विधिविधातयः ।' परिजमाभंसान स्वकीयांचवमपजपति -'न भवहिरनम्यायं भवममुपद्रोसम्यम्, किंतु सस्नेहवेहै: प्रातिशिशिशुसंदोहः सहातिसंवाघ योद्धव्यम् । अतो भवतामनुपायसं निषिः स्नानपिषिः । सपायप्रतिवंशवेश्मप्रवीपप्रभाप्रज्वलितेन वलीकान्सावलम्बितेन काचमुकरेण गहाणे प्रवीपकार्य विकाव्यमध्ये व सणसरण्ट "प्रोत मानिधीप्ती मोतिपासमारणारच "नयोनसङ्गा एव ५२ युगाः सपरिच्छवः परिदधाति । मनाग्मलीमसरागाव विक्रीणीते। ततोऽस्य सनयावनार्थमपि न कपकोपक्षयः और विना कुटी काटी व थालो में स्थापित करते ही विखरने वाली थी, अतएव तीन लोभ में आसक्त हए इसका 'पिण्याकगन्व' (म्बल सूंघने वाला) यह नाम लोक में प्रसिद्ध हुआ। 'मन को सुगन्धित्त करने मात्र से ही तो प्रयोजन है; अतः ताम्बूल के लिए धन खर्च करना निरर्थक है' ऐसा सोचकर वह पीपल की छालों को भक्षण करता था, जिनको रुचि वौर के या बावची के पत्तों के पश्चात् खाने से होती हैं। 'आधे पेट खाने वाला कुटुम्ब कभी भी [गृह-स्वामी से ] शरीर व मन द्वारा जरा भी विकृत ( वैर विरोध करने वाला) नहीं होता' ऐसा मानकर वह किसी कुटुम्बी को भरपेट भोजन नहीं देता था। वह अपने सेवकों के लिए इस प्रकार की शिक्षा देता था कि 'तेल व नमक-आदि मावारण वस्तुओं के लिए धन नष्ट नहीं करना चाहिए, पैसा व वर्तन लेकर बाजार में जाना चाहिए और तेल व नमक लेकर वाद में यह अच्छा नहीं है, यह कहकर वापिस लौटा देना चाहिए जिससे वर्तन में कुछ तेल व नमक लगा रह जाता है, उससं मालिश वगैरह शारारिक कार्य करना चाहिए।' वह अपने और कुटुम्ब के बच्चों से यह कहता था कि 'आप लोगों के लिए शरीर में मालिश करने के लिए मेरे गृह पर नहीं आना चाहिए किन्तु तेल की मालिश किये हुए पड़ोसियों के बालक-समूह के साथ आपस को विशेष रगड़पूर्वक कुश्तो लड़नी चाहिए, जिससे आपको तेल-स्नान-विधि विना यत्न किए हो जायगी। वह रात्रि में पड़ोसो के गृह के दीपकों को कान्ति से प्रकाशित हुए व गृह के उपरितन भाग पर लटके हुए कांच के दर्पण द्वारा अपने घर के आंगन में दीपक का कार्य करता था और पोचोलकड़ीसन-शलाका-म पिरोये हुए व अग्नि द्वारा प्रदीप्त किये हुए एरण्ड के चीजों से घर के अन्दर प्रकाश करता था। वह सर्वसाधारण के उपयोग में आनेवाला नया (कोरा ) बस्त्र-जोड़ा (टि० के अभिप्राय ले सेला-जोड़ा) - - १. पिप्पलछली। २. 'बावचोपत्र, पत्राणां पश्चाभोजनेन एक रुचिर्यासां ताः विष्णुतरात्वषः' टि० ख०, पक्षिकाकारस्तु 'कालयल्ली बदरी' इत्याह । ३. अद्धांझारण। ४. उत्तरसाधकान। ५. लिलवणादि सामान्यवस्तु-निमित्त समोधीनं धनं कायं विनाश्यते ?। ६. मानं। ७. हुटुं गत्वा। ८. समीचीनं । ९. शिक्षयति । १०, पड़ोसी । ११. पड़ोसी-गृह । १२. गहस्योपरितनभागे। १३. काच-दपणेन । *, प्रदीपनार्यमामरदतः श्रेष्ठी करोति । १४, गुहमध्ये । १५, भीडओदंड-पोचोलावाड़ो। १६. अग्नि । १७. एरण्डबीजः 1 १८-१९. कारावस्त्रसलाद्वय 1 २०. वस्त्र प्रक्षालनार्थ। २१. कौड़ो ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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