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________________ सप्तम आश्वासः ३७१ "पर्वाणि ख २ पुराणपल्लव कचच रापनयनकणोत्करेणातपतथ्स संघाट स्नेहा पॅण गुडगो गौशालनन पायेण च निवर्त यति । प्रत्यामन्त्रणेन विध्यात्व 'रागार भोजनावलोकनेनाश्रित जनमनोविनाश भयावामन्त्रितो निकेतने प्लाति । न कस्यापि एवमतीयसर्वोत्कर्षरसहायें सकलकदर्यायें तस्मि अवश्यपि मृतकल्पमनति वसति राति एकता स लक्ष्मीकम लितोपरिमलनकलभो रत्नप्रभो राजसिन्धुरप्रघावसंदर्शनप्रासादसंभावनाप श्रवणाश्रववृतस्य ब्रह्मवत्तस्य महीपतेः कालेन स्थण्डिलतालुप्तावकाशे भवनप्रवेशे भूशोधनं विधापपनेतवाहथानमण्डपभोगबन्धलुतः " प्रकामोधरदोषकलुषवपुषः संपूर्ण विस्तारपुषः प्रथिमगुणविशिष्टकाः २ सुवर्णेष्टकाः समालोक्य बहिनिकामं कलम निस्वादितरेष्टकाविशिष्टस्वमाकल्यन् 'एताः खलु चैत्यालय निर्माणाय योग्याः' इति 3 चेतसंकत्र स्तूपतामानाषयामास । अत्रान्तरे समस्त १४ मिसंपच पुरोगम सगन्धः ४ पिण्याकगन्धः सरभसमापततामिष्टकाषतां वैधिकनिव हानां सायंसमये १७ मार्गविये पतितामेका मिष्टामवाप्य चलनक्षालन देशे "ग्यात् । तत्र च प्रतिपत्रमसिंघर्षाद परिवार सहित पहनता था और जैसे हो वे थोड़े मलिन होते थे, उन्हें बेंच देता था, जिससे कपड़े धोने मैं उसको कोड़ी भी खर्च नहीं होती थी। वह दीपोत्सव आदि पर्व, पुराने पत्तों को कूट कर और उनके रेशे निकालने से उत्पन्न हुई चूर्ण-राशि से ओर सूर्य को गर्मी से तप्त हुए संघाट-गुड़ांश के तरल तेल द्वारा एवं गुड़ की पट्टी घोने से उत्पन्न हुए मधुर रस द्वारा व्यतीत करता था । बदले में दूसरों का निमन्त्रण करने से धन खर्च होगा एवं दूसरों के गृह का भोजन देखने से मेरे सेवकजनों के मन मुझ से टूट जाँगे, इस भय से निमन्त्रण आने पर भी वह किसी के नहीं जोना था । स प्रकार नही हुई तृष्णा से प्रेम करने वाला और सब कंजूसों का आचार्य बहू पिण्याकगन्घ जीवित रहने पर भी मरे हुएसरीखे मनवाला होकर निवास कर रहा था | एक समय लक्ष्मीरूपी कमलिनी के मर्दन करने के लिए हाथो के बच्चा सरीखे रत्नप्रभ राजा ने श्रेष्ठ हाथियों को दौड़ देखने के लिए एक राज-महल के निर्माण के लिए विचार किया ओर उसके लिए स्वर्गीय ब्रह्मदत्त राजा के महल- प्रदेश में, जिसकी जगह समय पाकर ढेर हो जाने से लुप्तप्राय हो गई थी, भूमि शोधन राई तब उसने ऐसी सुवर्ण की ईंटें देखीं, जो कि इसके विस्तृत सभागृह में लगी हुई थीं। जो अत्यन्त जमीन के ऊपर दोप से काली हो गई थी । जो समस्त विस्तार को पुष्ट करने वाली थीं और जो पृयु गुण से विशिष्ट (चोड़ी थीं), परन्तु वे बाहर से अत्यन्त मेल से मलिन थीं, इसलिए उसने दूसरी ईंटों को विशेषता निश्चय करते हुए 'निस्सन्देह ये ईंट मन्दिर के निर्माण के लिए योग्य हैं। इस प्रकार मन में विचार कर एक स्थान पर उनका ढेर लगवा दिया । इसी बीच में समस्त लोभियों में अग्रेसर सरीखा पिण्याकगन्ध वेगपूर्वक आने वाले ईंटों का भारवहन करने वाले ही उठाने वालों (कावड़िक ) के समूहों की संख्या की वेला में मार्ग- प्रदेश पर गिरी हुई एक ईंट उठा लोपा और उसे पैर धोने के स्थान पर रख दी। वहां पर प्रत्येक दिन पैरों की रगड़ से जब उस ५.पण करोति । १. दीपोत्सवादीनि करोति । २. कड़वकलकणगणि ? | ३. सीबड़ा । ४. फोपली । ६. अन्यलोक हे मोजनं सप्रेम तथा मद्गृहे एवं न स्थास्यन्ति इति भयात् । ७. न भुझे १८. लु । 1 १२. १३. मनसि कृस्वा । पृथु । विविधः भारः पर्याहारी वा तं ९. मृतस्य । १०. ईशाः । इष्टकाः । ११. विस्तारं पुष्यन्ति या १४. छु । १५. सदृशः । १६. 'भारवाहाना' दि० च० 'वार्ताविह वैवधिकः बहगोति वैवधिकः' टि० ख०, पञ्जिकायां तु 'वैधिकाः परिन्या: कावाच एकार्याः । इति प्रोक्तं । १७. संध्यायां । १८. पादप्रक्षालनदेशे । १९. प्रतिदिनं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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