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________________ सप्तम आश्वासः पञ्चालपेशेषु त्रिदशनिवेशामुकूलोपशल्गे' काम्पिल्ये निममनिमाहात्म्योपहसिसामराचार्यप्रतिभो रत्नप्रभो नाम नमतिः । आत्मीयकपोलकान्तिविजितामृतमरीचिमण्डला मणिकुण्डला नामास्य महादेवी । कुलकमागतात्मोपावितामितविता सागरबत्तो नाम श्रेष्ठी । गृहस्य मोरिव धनधोमिास्य भार्या । सूनुरमपोयाम्पार्थोपार्जकाविता सुबतो नाम । म महालोमविभावसुग्वलच्चित्तभित्तः सागरबत्तः पुषपरम्परायातायाः कानकोटेरेकस्याः है, स्वयमुपाजितार्थकोटः पतिवन्नपि शालीयाविभक्तभोजने' वितयतपासनीलिवना"सावपतिाच, शाफपाकविषाने संभारावितिः "प्रसभाम्पवहातिश्च धासंपूरपूरिमाष्टिमाविभक्ष्योपझपे महती स्नेहापहतिरिधनविरतिश्च, दुग्धषिघोलरसाधुपयोगे, न विक्रयाय धृतं न च तक "कडङ्गरायेति च मन्यमानः स्वपमेव प्रतिविवसद्धि महणाय २८वजलोकपाटके विहरमाण: प्रतिपितृप्रिय यन्त्रमुपसृत्य 'आ:1", भुरभि सल्वेष खलः संबातः' इति सस्मेरं ध्याहन, गृहीतपिण्डिालडा" १०स्यबसानसमये तवान्पमानिनन्सन, सर्वलोकपरिहत मनभिकालोषित"मतिसमर्पतां गतमण्डितमेव२० । एमालोविलीयं भवतिर सस्केवलारे अन्तिसोमसहायमाहरति । अत एवास्थर महामोहानुबन्धस्य २४ पिण्याकगन्ध इति १७. लोभी पिण्याकगन्ध को कया पञ्चालदेश के स्वर्ग की अनुकूलता के निकटवर्ती काम्पिल्य नगर में अपनी बुद्धि के माहात्म्य से वृहस्पति की प्रतिभा को तिरस्कृत करने वाला 'रत्नप्रभ' नामका ग़जा था | अगने गालों की मनोज्ञ कान्ति द्वारा चन्द्रमण्डल को जीतने वाली 'मणिकूण्डला' नाम को उसको पटरानी थी। वहां पर वंशपरम्परा से प्राप्त हुई व स्वयं कमाई हुई अपरिमित लक्ष्मी का स्वामी 'सागरदत' नामका नगरसेठ था। उसकी गृहलक्ष्मी-सी 'धनश्री' नामको पत्नी थी। इनके न्यायपूर्वक रन कमाने में एकाग्रचित्त वाला 'सुदत्त' नामक पुत्र था। महालोभरूपी अग्नि में अपनी चित्तरूपी भित्ति को प्रज्वलित करनेवाला सागरदत्त सेठ यद्यपि वंश परम्परा से प्राप्त हुई एक करोड़ सुवर्णमुद्राओं का और स्वयं कमाई हुई अर्घकरोड़ सुवर्ण मुद्राओं का स्वामी था, तथापि वह सोचता था, कि धान्य-आदि का भात खाने में उसके छिलके दूर करने होंगे और प्रक्षालन और पसावण करना पड़ता है। यदि शाक पकाया जाय तो तेल व मिर्च-मसाला-आदि में खर्च होता है और उसके साथ अधिक अन्न भी खाया जायगा और घेवर, पडी व जलेबो-आदि भक्षण-योग्य वस्तुओं के आक्षेप घी नष्ट होता है और ईंधन का व्यय होता है। इसी प्रकार दूध, दही, तक्र ( मट्ठा) के उपयोग ( भक्षण) करने से न तो चने के लिए धी रहेगा और न धान्य की भूसी के लिए छांछ ही रहेगी। ___अतः जब वह स्वयं प्रतिदिन व्याज बसल करने के लिए तेलियों के समूह के मुहल्ले में पर्यटन करता था तो उनके कोल्हू के समीप जाकर जरा हंसकर कहता 'वाह निस्सन्देह यह खली तो सुगन्धित निकलो है' ऐसा कहकर वह तिल की खली का एक टुकड़ा उठा लेता था और भोजन-वेला में उसकी गंध घता हुआ और ऐसी धान काजो के साथ खाता था, जो कि समस्त लोगों द्वारा छोड़ो हुई, अतिजीणं, स्वल्प मूल्य वाली १. समीपे । २. बृहस्पतिबुद्धिः। *. 'स्वयमुपाजितस्य च तदर्घस्य च पतिसंवत्रपि' क०। ३. सति बढी हानि भक्तीति मन्यमानः । ४. प्रक्षालन । ५. सावण । ६. तैलगरीचादीनां व्यय: स्यात् । ७. 'प्रचुरानस्य मुक्तिः' टि० ख०, यश० पं० तु 'गृद्धिभोजनं। ८. धैयर 1 ९. पड़ो। १०. धान्यत्वगुनिमितं । ११. व्याज । १२. तिलंतुद, तैलिकाः। १३. पितृप्रियाः तिलाः । १४. यन्त्र तिमीलनयन्धं भाण्डे ( घाणी)। १५. अन आ: प्रति कोपेणे व्याजमहणार्थ । १३. बलः । १७. भोजनवेलायां । १८. अनिजीणं । १९. स्वल्पमूल्यं । २०. खंडनरहितं । २१. स्थालोदिलीय अर्हति । २२. काक्षिकेन सहित । २३. सागरदत्तस्य । २४. आसक्तः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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