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________________ चतुर्थ आश्वास इति प्रत्यहमधीयानोऽपि तस्या दुष्कर्मणः समानि संयासपरः समभवम् । अपि च । अज्ञानभावादथवा प्रमाबादुपेक्षणाद्वात्ययभाजि कार्ये । पुंसः प्रयासो विफलः समस्तो गलोबके कः खलु सेतुबन्धः || १९९ ।। विहाय शास्त्राप्यवमत्य मन्त्रिणो मित्राण्यवज्ञाय निरुद्धघ बान्धवान् । भवन्ति ये नयनोतयो नृपाशिवराय तिष्ठन्ति न तेषु संपवः ॥ २००॥ न चापि मे सन्ति विनीतचेतसस्तुलात्तमाः कार्यविचारकर्मणि । परं ते भवयन्त्युपाकृताः ॥ २०१ ॥ अ ૮૨ अपि च । प्रशास्ति यः श्रोतृवशेन धर्म नपेच्छा यो निगुणाति कार्यम् । अकल्पकामोपचमेन वंशस्त्रयस्त एते कलिकालपादाः ॥ २०२ ॥ एकैकमेषां गुणमाकलय्य भयर हामी मन्त्रिपदे नियुक्ताः । सिंहेषु दृष्टं यदि नाम शौर्य क्षेमोऽस्ति किं तैः सह संगलस्य ॥ २०३॥श प्रवर्तते यो नृपतिः खलानां प्रमाणयन्नात्महिताय वाचः । नूनं स कल्याणमतिर्न कि स्यादाशीविषः केलिकरां यथैव ॥ २०४ ॥ हुआ भी उस दुष्टात्मा अमृतमति महादेवी के महल में उसके साथ सहवास करने में तत्पर हुआ । तथा च - जब कर्तव्य, अज्ञानता अथवा असावधानता से अथवा अनादर के कारण अवसर चूंकनेवाला हो जाता है तब उसको सिद्ध करने के लिए किया हुआ मनुष्य का समस्त श्रम निरर्थक है। क्योंकि जैसे जल के निकल जानेपर उसको रोकने के लिए पुल बाँधना निरर्थक है' ।। १९९ ।। जो राजालोग नीतिशास्त्र के सिद्धान्तों को छोड़कर मन्त्रियों का तिरस्कार करके व मित्रों का तिरस्कार करके एवं बन्धुजनों का अनादर करके दुष्ट नोति का अनुसरण करनेवाले होते हैं, उनके पास चिरकाल तक धनादि लक्ष्मियाँ नहीं ठहरतीं ॥ २०० ॥ मेरे मन्त्री-आदि राजकर्मचारी विनयशील नहीं हैं और कर्तव्य का विचार-कर्म करने में तराजू के दण्डसरीखे कर्तव्य विचारक व न्यायवान नहीं हैं। जो ये सदा मेरे निकटवर्ती हैं, स्वीकार किये हुए वे लोग चित्त को मव-युक्त करते हैं, अर्थात् नीतिशास्त्र से पराङ्मुख है || २०१ ।। जो बक्ता श्रोता की अधीनता से धर्म - आचार का निरूपण करता है । अर्थात् श्रोता जिस धर्म में लीन है, वक्ता भी उसी धर्म का उपदेश करता है । एवं जो मन्त्रो राजाकी इच्छानुसार मन्त्र ( कर्तव्य विचार ) करता है और जो वेद्य ज्वरादिरोग पीडित पुरुष को बढ़ी हुई इच्छा ( अपथ्य सेवन की रुचि ) के अनुकूल उपदेश देता है । अर्थात् जो वैद्य, रोगी को जैसा रुचता है उसी के अनुसार औषधि का उपदेश करता है। पूर्वोक्त ये तीनों लोग ( धर्मवक्ता, मन्त्री व वैद्य ) कलिकाल के तीन पेर है । अर्थात् कलिकाल विशेष पापी है, जो कि पूर्वोक्त सोन पैरों से प्रवृत्ति करता है, यदि इसके चार पैर होवें तो लोक में समस्त अधर्म - पन्ही प्रवृत्त हो जाय || २०२ ।। मन्त्री पदपर नियुक्त हुए इनका एक-एक गुण ( दयालुता आदि ) निश्चय करके मैंने इन्हें अवश्य मन्त्री पद पर नियुक्त किये हैं। अभिप्राय यह है कि केवल एक एक गुणसे अलङ्कृत हुए ये लोग कार्यसिद्ध करनेवाले नहीं हो सकते । उदाहरणार्थ – यदि सिद्धों में शूरता देखी गई तो क्या उनके साथ संगम करनेवाले मानव का कल्याण हो सकता है ? उसीप्रकार दयालुता आदि एक-एक गुण से युक्त मन्त्रो भी राज्य संचालन कार्य करनेवाला नहीं हो सकता" ||२०|| जो राजा दुष्टों के वचनों को अपने सुखके लिए प्रमाण मानता हुआ प्रवृत्ति करता है क्या वह निश्चय १. आक्षेपालंकारः । २. जात्पलंकारः । ३. उपमालंकारः । ४. रूपकालंकारः । ५. आक्षेपालंकारः । १२
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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