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________________ अष्टम आश्वासः अन्तोरनन्तसंसारभ्रमंनो रथवर्मनी । आर्तरोने स्यजेद्धपाने तुरन्तरूलवामिनी ।।१९।। धोध्यागमकपाटे ते मुक्तिमार्गिले परे । सोपाने श्वश्रलोकस्य तत्वेक्षावृत्तिपमणी ।।१९१३॥ लेशतोऽपि मनी पावते समधितिष्ठतः । एष जन्मततामधुचः समधिरोहति ॥१९२।। ज्वलन्नजनमाधते प्रदोषो न रविः पुनः । तथाशविशेषेण ध्यानमारमते फलम् ॥१९३॥ प्रमाणमयनिक्षेपः सामुयोगैषिशुरषोः । मति तनोति तत्वेषु धर्मध्यामपरायणः ।।१९४|| "अरहस्ये पया लोके सती कामधनकर्मणो" । "मरहस्यं तमेच्छन्ति मुधियः परमागमम् ॥१९५।। का चिन्तवन करना है, वह अनिष्ट संयोगज नामका पहला आर्तध्यान है। इस वस्तु का वियोग हो जाने पर उसको प्राप्ति के लिए हमेशा चिन्तवन करते रहना वह इष्टवियोगज नाम का दूसरा आर्तध्यान है । आगामी भोगों की प्राप्ति के लिए सतत चिन्तवन करना तीसरा निदान नामका आर्तध्यान है । शारीरिक पीड़ा हो जाने पर उसे दूर करने के लिए निरन्तर चिन्तयन करना वह वेदना नामका चौथा आर्तध्यान है। इसीप्रकार रौद्रध्यान भी हिसानंदी, मृषानंदी, चोर्यानंदी, व परिसहानदी के भेद से चार प्रकार का है। दूसरों को सताने में आनन्द मानना हिंसामन्दी नामका रौद्र है। झूठ गोलो में आनन्द मानना समानी, चोरी करने में आनन्द मानना चौर्यानन्दी और विषय-भोग की सामग्री के संचय करने में आनन्द मानना विषयानन्दी नामका चौधारौद्रध्यान है ! उक्त दोनों आर्त व रोद्रध्यान त्याग देने चाहिए ।।१८९-१९०।। ये दोनों अशुभ ध्यान जाननेयोग्य आमम के ज्ञान को रोकने के लिए किवाड़-सरीखे हैं और मोक्षमार्ग के रोकने के लिए बड़े अर्गल-( वेड़ा) जैसे हैं एवं नरकलोक में उतरने के लिए सीढ़ी-जैसे हैं और तत्त्वष्टि को ढांकने के लिए पलकों के समान है ।। १९१ ॥ जब तक मन में ये दोनों ध्यान लेशमात्र भी अधिष्ठित रहते हैं तबतक यह संसाररूपी वृक्ष विशेष केंचा होकर बढ़ता चला जाता है | १९२ ।। जिसप्रकार जलता हुआ दीपक कज्जल धारण करता हैं कि जलता हुआ सूर्य, उसीप्रकार ध्यान भी ध्यान करनेवाले के अच्छे या बुरे भावों के अनुसार हो अच्छा या बुरा फल देता है ।। १९३ ।। धर्मध्यान [दोष व दोष-फल प्रदर्शित करने पर मनुष्य-लोक का गुण व गुण-फल के श्रवण में आग्रह होता है, ऐसा निश्चय करके शास्त्रकार वार्त व रौद्र घ्यान के बाद धर्मध्यान का निरूपण करते हैं ] जो निर्मल बुद्धिशाली मानव धर्मध्यान में तत्पर होता है, वह प्रमाण ( सम्यग्ज्ञान), नय, निक्षेप और अनुयांगद्वारों के साथ तत्त्वों के ज्ञान में अपनी बुद्धि प्रेरित करता है, वह उसका आज्ञा विचय धर्मध्यान है ।। १९४ ।। जिसप्रकार लोक में सुवर्ण की दो क्रियाएँ ( कसौटी पर कसना और छेदन करना) प्रकटरूप से होती है उसीप्रकार विद्वान् पुरुप परमागम को भी गृढ़ता-रहित (प्रकट अर्थवाला ) चाहते हैं। अभिप्राय यह है कि सुवर्ण की तरह परमागम भी ऐसा होना चाहिए, जिसे सत्य की कसौटी पर कसा जा सके, ऐसा आगम ही श्रेष्ठ है, उसमें कहीं हुई वार्ते यथार्थ होती हैं, परन्तु जो आगम हमारे-सरीखे अल्प बुद्धि वाले १. एनोरथ--पापरथमार्गभूते हैं घ्याने । २. तमा चोक्तं तत्वार्थसूत्र-म०९) 'आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार । ३०॥ विपरीतं मनोज्ञस्य ।। ३१॥ वेदनायारच ॥ ३२॥ निदाने च ।। ३३ ॥ हिमानलस्तेयबिषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरलयोः ॥३५।। ३. नेवनिमीलन नेत्रापनोपकरणविस्फारणि? ४. करोति । ५. प्रकट। ६. विद्यमाने भवतः । ७. सुवर्णस्य द्वे कर्मणी कषच्छेदलपाणे । ८. प्रकटाथ ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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