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________________ यशस्तिलकचम्पूकायै "यस्पोषन विचारेष्वपि मावृशां । स संसाराचे ज्ञजन्मवालम्बः कथं भवेत् ॥ १९६ ॥ ( इत्याशा ) मही मियातमः पुंसा युक्तिश्रोतः स्फुरत्यपि । यवन्धयति चेतांसि रत्नत्रयपरिग्रहे ॥ १९७॥ शामहे तवेषां दिनं' यत्रास्तकरमवाः । इवमेते प्रपश्यन्ति तस्वं दु:खनिवर्हणम् ॥ ११८ ॥ ( इत्यपाथः ) अकृत्रिम विचित्रामामध्ये सरः जिमान् । भवत्यतो लोकः प्राने 'तज्ञामनिष्ठितः || १९९ ।। ( इति लोक: * ) रेवन्तस्तत्र लियंगुष्वं मधोऽपि च । अनारतं भ्रमस्येते निजकर्मा निलेरिताः ॥ २००॥ ( इति विपाकः ) मानवों की परीक्षा में स्खलित ( असफल ) होता है, वह संसार समुद्र में डूब रहे प्राणियों को अवलम्बन ( सहारा ) देनेवाला किसप्रकार हो सकता है ? भावार्थ - क्षायोपशमिक ज्ञान से सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित परमागम से परमात्मा के स्वरूप का निश्चय करके परमात्मा का ध्यान करना चाहिए, इसी से परमात्म पद की प्राप्ति होती है। जिस ध्यान में जैन सिद्धान्त में कहे हुए वस्तुस्वरूप का चिन्तन सर्वज्ञ भगवान् को प्रमाण मानकर उनको आज्ञा को ही प्रधान करके किया जाता है उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं ।। १९५-१९६ ।। ४२६ अपायविचय का स्वरूप आश्चर्य है कि युक्तिरूपी प्रकाश के विस्तृत होने पर भी मिध्यात्वरूपी अन्धकार, प्रम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को ग्रहण करने में ( मोक्षमार्ग को स्वीकार करने में ) मनुष्यों के fart को अन्धा बनाता है । अर्थात् हिताहित के विवेक से शून्य करता है, इसलिए हम इन भव्यजनों के उस दिन की आशा करते हैं, जिस दिन ये मिध्यादृष्टि मिध्यात्वरूपी पाप को नष्ट करने वाले होकर समस्त दुःखों से छुड़ानेवालो तत्वों की श्रद्धा करेंगे, अर्थात् सन्मार्ग से भ्रष्ट हुए मानवों के उद्धार करने के विषय में जो चिन्तन किया जाता है, उसे अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं ।। १९७-१९८ ।। संस्थानविचय का स्वरूप यह लोक किसी ईश्वर आदि द्वारा रचा हुआ नहीं है, और इसका स्वरूप भी विचित्र है, इसके बीच में एक राजू चौड़ी व चौदह राजू लम्बो असनाली है एवं जो तीन वातवलयों ( धनदधिवात वलय, धनवातवलय व तनुवातबलय ) से वेष्टित ( घिरा हुआ ) है तथा लोक के ऊपर उसके प्रान्तभाग में सिद्धस्थान है, अभिप्राय यह है उक्त प्रकार लोक के स्वरूप के चिन्तवन करने को संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं ||१९|| १. परकीय: आगमः । २. घयं वाच्छामः ३. यत्र यस्मिन् दिने एते मिथ्यादृष्टयः मस्तकल्मषाः सन्तः तत्थं पश्यन्ति तद्दिनं वाच्छामः । तथा वाह पूज्यपाद:-- 'जात्यन्वग्मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद् विमुखा मोक्षार्थिनः सम्य मार्गापरिज्ञानात् सुगुरमेवापयन्तीति सन्मार्गापायचिन्तनमपायविचयः । अथवा --- निष्यादर्शनज्ञानवारित्रेभ्यः कथं नाम इमें प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृति मन्वाहारोऽपायविचय:' । — सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सू० ३६ । ४. मोक्ष । * संस्थान विचयघध्यान । तथा चाह टिप्पणीकारः श्रुतिमतिबलवीर्य प्रेमरूपायुरंग, स्वजनतन कान्ताभ्रातृपित्रादिसर्वं । गितलं वा न स्थिरं वीक्षतेंगी तदपि वत विमूढो नात्मकार्य करोति ॥ १ ॥ इति संस्थान विचयः' टि० ख० । तथा चाह पूज्यपादः --- लोकसंस्थानस्वभावविचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयः । सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सूत्र ३६ । ५. तथा चात् पूज्यपाद:-- 'कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकाल भवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविषमः । - सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सूत्र ३६,
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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