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________________ सप्तम आश्वासः निवेशनं पप्रपुटभेदनं' विद्वरिसकितविविदूषक पीठ मर्वावस्थानं 'पेष्ठास्थानं विमिर्वाप्य नानादिग्देशोपसर्पणवणि प्रशान्तशुल्क 'भाटक " भाग हारव्यवहारमवीकरम् । ३२७ लागि अत्रान्तरे पचिनोखे पट्टविनिविष्टा 'घाससन्त्रस्य युगान्तको " निजसनाभिजनाम्भोजभानुः सूनुर्भद्रमित्रो नाम समानघन सारिवेषिपुत्रः सत्यं "वहित्रयात्रायां थियासुः । 'माया कुर्यात्या वित्ताय कल्पयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं पाएं भतंश्यपोषणे ॥२०४॥ इति । *पुण्यश्लोकार्थमवधार्य विचार्य वातिविरमुप १ " निषिन्यासयोग्यतावासम् सविता चारोऽवधारितेतिकर्तव्यतस्याखिलोकलाय विश्वासप्रभूतेः श्रीभूतेहस्ते तत्पत्नीस मन कक्षमनुगता तक 12 रत्नसप्तकं निषाय विषाय जमावासमर्थमर्थमेकवणं प्रजाप्रलाप सुवर्णद्वीपमनुससार । जहाँ पर प्याक, सदावर्त और व्यवहार निर्णय करने वाली सभा से युक्त हुई गृह पंक्तियों की रचना पाई जाती थी । और उसमें ऐसा पोस्थान ( बाजार ) बनवाया, जो कि जुआड़ियों, विटों, विद्रूपकों व मशारों को स्थिति से रहित था । वहाँ वह नाना दिशा संबंधी देशों से आने वाले वणिकों के साथ स्वल्पव्याज व स्वल्पभाड़ा और थोड़े दान ग्रहण वाला व्यापार करने लगा । इसी बीच में पचिनोखेट नगर में स्थित हुए गृह में निवास करने वाले और सुदत्ता नामको स्त्री के सदाचार से पवित्र वंशवाल, वणिक् स्वामी 'सुमित्र' नामके सेठ का अपने कुटुम्बी जनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य सरीखा 'भद्रमित्र' नाम का पुत्र था। एक समय वह धन व चरित्र में अपने सरीखे अन्य वणिक् पुत्रों के साथ बानपात्र ( जहाज ) द्वारा समुद्र यात्रा करने का इच्छुक हुआ । नीति में कहा है- ' अपनी आमदनी का एक चौथाई तो पूंजी निमित्त निर्धारित करके रखना चाहिए । एक चौथाई व्यापार के लिए निर्धारित करना चाहिए। एक चौथाई धार्मिक कार्यों व उपभोग में खर्च करना चाहिए और एक चौथाई से अपने आश्रितों का पालन करना चाहिए ॥ १०४ ॥ इस सत्यबाणी को निश्चय कर भद्रमित्र ने अपनी स्थापनीय रत्नादि निवि को किसी सुरक्षित योग्य स्थान में रखने का चिरकाल तक विचार करके शास्त्रोक्त सदाचार पालनेवाले व निश्चित कर्तव्यशील उसने अन्त में समस्त लोक में प्रशंसनीय विश्वास के जनक उसी श्रीभूति के हाथ में उसकी स्त्री के समक्ष अत्यन्त मूल्यवान पक्षवाले व पूर्व पुरुषों द्वारा संचय किये हुए अपने सात रत्न धरोहररूप में स्थापित करके जलयात्रा में समयं धन को अपने पास रखकर एक जहाज द्वारा ऐसे सुवर्ण द्वीप को प्रस्थान किया, जहाँ पर एक वर्ण वाली प्रजा के रहने की किंवदन्ती है । १. क्रमाणपत्तनं । २. हासिक । ३. 'कामाचार्य वैश्याचार्य' दि० ख० पञ्जिकाकारस्तु पीठमर्दः नाटकाचार्यः' इत्याह । ४. पोलस्थानं । ५. स्वल्प । ६. व्याज । १७. भाड़ा । ८. क्षण । ९. स्थितम् । १०. 'गोत्रजन' टि० ख० 'सनाभिर्वन्धुः' इति पञ्जिकायां । ११. यानपात्र । १२. उपार्जन -लाभमध्यात् । १३. जीनिमित्तं । १४. निर्धारितं कार्यं । *. पुष्पएलोकः सत्यवाकु । १५. स्थापनीयं द्रयं । १६ बहुमूल्यपनं । १७. पूर्वपुरुषसंचितं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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