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________________ ३२६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये रस्नरमा गरन स्त्रीरलाम्ब'रविभूतयः । भवस्यचिन्तितास्मेवामस्तेयं येषु निर्मलम् ॥ १०२ ॥ *परप्रमोणतोष्ण तृष्णाकृष्णषियों नणाम । अत्र घोषारसूप्तिः परमेव च दुर्गतिः ॥ १०३ ॥ भूयतामर स्तेयफलस्योपाख्यानम्-प्रयागवेशेषु निवासविलासवारलाप्रलापवाचालितविलासिनीनपुरे सिंहपुरे समस्त समुनमुद्रितमेदिनीप्रसाधनसेन: पराक्रमेण सिंह इव सिहसेनो नाम मपत्तिः । तस्म निखिलभूवमजनस्तवनीचितक्ता रामवत्ता मामासहिषो। सुतो खानपोराश्चर्य सोन्थयोवार्यपरितोषिलानिमि बेन्द्रो सिंहलन्द्रपूर्णचन्द्रो नाम । निःशेषशास्त्रविशारवमतिः श्रीमतिरस्य पुरोहितः सून्ता धिकधिषणतया सत्यघोषापरनामर्षयः । धर्मपल्लो चास्य पतिहिसंकषित्ता श्रीवत्ता नामाभूत् ।। स किला श्रीतिषिश्वासरसनिविनतया परोपकारनिहनतया विभक्तानेकापवरक रचनाशालिनीभिमहाभाण्डवाहिनीभिर्गोशालोपयस्याभिः कुल्याभिः५१ समन्वित मतिसुलभजलयबसे घनप्रचारं "भण्डनारम्भोद्भर भटी रपेटकपक्षरक्षासारं पगोचतप्रमाणं वप्रप्राकार' प्रलोलिपरिमासूत्रितत्राणं प्रपासत् जप्तमासनाप२ कोपि. अतोचार हैं ।। १०१ ।। जिन महापुरुषों में विशुद्ध-निरतिचार-अचौर्याणुनत प्रतिष्ठित होता है, उन्हें माणिक्यआदि रत्न, मुवर्ण-आदि, उत्तम स्त्री, उत्तम वस्त्र-आदि विभूतिया बिना चिन्तवन को हुई स्वयं प्राप्त हो जाती हैं॥ १०२ ॥ जो मनुष्य दूसरों की धनादि वस्तु चुराकर हर्षित होते हैं, तृष्णा से मलिन बुद्धि वाले उन्हें ऐहिक दुःख ( जेलखाने-मादि का कष्ट और पारलौकिक दुर्गति के कष्ट भोगने पड़ते हैं ।। १०३ ॥ १४. चोरो में आसक्त श्रीभूति पुरोहित को कथा । चोरो के फल के संबंध में एक कथा है, उसे सुनिए---प्रयाग देश के सिंहपुर नामक नगर में, जहाँ पर वेश्याओं के नूपुर, गृहों में कोड़ा करती हुई हंसिनियों के मधुर स्वरों के साथ मुखरित हो रहे थे-झुनझुन ध्वनि कर रहे थे, 'सिंहसेन' नामक राजा था, जिसकी सेना समस्त समुद्रों से चिह्नित पृथ्वी को वश करने वाली थी ओर जो सिंह सरीखा पराक्रमी था । उसको समस्त लोक के मनुष्यों द्वारा प्रशंसनीय चरित्रशालिनी 'रामदत्ता' नामकी पटरानी थी। उनके आश्चर्यजनक लावण्य सम्पत्ति एवं उदारता द्वारा देवों के इन्द्रों को प्रमुदित करने वाले सिंहचन्द्र' व 'पूर्णचन्द्र' नामके दो पुत्र थे। समस्त शास्त्रों में निपुण बुद्धिशालो 'श्रीभूति' राज-पुरोहित था । अपनी बुद्धि को सत्य वचन को ओर विशेष प्रेरित करने से उसका दूसरा नाम 'सत्यपोष' भी था। पति का हित करने में लोन चित्तवाली उसको 'श्रीदत्ता' नामको धर्मपत्नी थी। श्रीभूति पुरोहित विना विघ्न वाधाओं के अपना विश्वास व प्रेम उत्पन्न करने में समर्थ था और परोप. कार करने के अधीन था । अतः उसने एक ऐसा कयाण नगर बनवाया, जो कि ऐसो पटशालाओं ( वस्त्रगृहोंतम्बुओं से युक्त था, जो कि जुर्द-जुदे अनेक अन्तर्गृहों की रचना से सुशोभित थीं। जहां पर बड़े-बड़े वर्तन स्थापित थे और जो गोशाला के नजदीक थीं। जहाँ पर जल, घास व इंघन का मिलना मुलभ था। जो युद्ध के आरम्भ करने में उत्कर योद्धाओं के समूह के निवास से विशेष सुरक्षित होने के कारण उत्तम था । जो एक कोस के विस्तार में बना था। जो खेत, कोट, मुख्य मार्ग और खाई होने से सुरक्षित था और १. सुवर्णादि । २. उत्तमस्त्री । ३, उत्तमवस्त्र। ४. परत्रस्तुचीर्यहर्षेण । ५. देवाः । ६. सत्यवचन | ७. परत्रगनया । ८. परंडा वोवरा ?। ९. 'कुपइकूपदीपमुख' टि० च०, वाखरभाजन ? टि० ख० ! १७. गोमहिषीवन्धनस्थानसमीपाभिः । ११-१२. वस्त्रशाल, पटमालाभिः क्रयाणपत्ननं पाठस्थानं विनिर्माप्य । १३. तण । १४. संग्राम । १५. उत्फट । १६, सुगट । १७. मोश।१८. अधोलोभित्थाधारः । १९. सत्रमाच्छादने या सदादाने बनेऽपि व इत्यमरः, । संकलित-सम्पादक २०, सहित । २१. मार्ग ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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