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________________ मुक्ति के विषय में अनेक मान्यताएँ व उनकी समीक्षा- या कल्प सैवानशेषिक, ताकिकवैशेषिक, पाशुपत, कील, सांरूप, मूढ़ता का निषेष-- बौद्ध, जैमिनीय, पाकि, वेदान्ती, माध्यमिक बौद्ध, सूर्य को पूजा-निषित जल चढ़ाना-प्रादि व कसे मानवों काणाद, ताथागत, कापिल, ६ अदबवादियों के मल व पो जैनधर्म में लाने की चेष्टा करनी चाहिए ? उनकी समीक्षा और स्यानादियों द्वारा मानी हई मुक्ति २११ ५वा कल्प फा स्वरूप। १५३-१६४ सम्यक्त्व के प्रतिबार (मला-प्रादि ) व शङ्का का २रा कल्प स्वरूप व उससे हानि पौर निःशंकित अंग का स्वरूप लया प्राप्तस्वरूपमोशंसा-सम्गग्दर्शन का माहात्म्य व जमदग्नि तापमी के तपोभंग की कथा २१२-२१६ स्वरूप, पाप का नक्षण, १८ दोष, ब्रह्मा, विष्णु, मद्देश- ठाकल्प मादि की आसता का निरसन, शिव को धाल मानने के जिनदत्त और पगरथराजा की प्रतिज्ञा के निर्वाह की विश्व में विशेष प्रबल युक्तियों द्वारा समीक्षा की जाना, कथा २१६-२२२ एवं जैन तीथंडरों को आपस मानने में अभ्यवादियों के ७वा कल्प प्रारोपों का ममाधान करते हा उनकी पासता का समर्थन १६५-२०४ निश्चित पंग में प्रसिद्ध मंजन बार की कथा ३रा कल्प २२३-२२५ दवा कल्प बागमपदार्थपरीक्षा नि:कांक्षित अंग का स्वरूप व उसमें प्रसिद्ध भनन्तआप्त को प्रामाणिकता से प्रागम की प्रामाणिकता, मति की कथा २२६-२३० मागम का लक्षण प विषय, वस्तु का स्वरूप द्रव्याधिक हवा कल्प व पर्यायाथिक नय की अपेक्षा उत्साद, विनाश व स्थिर पील है, दस्त को सर्वथा निक्षण बिनाशील मानने निविचिकित्सा अंग का स्वरूप व उसमें प्रसिद्ध वाले बौजी का और सर्वया निव मागने वाले मांस का उद्दायन' राजा की कथा २३१-२३४ युक्तिपूर्ण मंइन, आत्मा का सा, मात्मा को जान-दर्णन १० वी कल्प न्य मानने पर और शानमात्र को जीव मानने पर अमूवष्टि अंग का स्वरूप व भवसेन नामकः मुनि आपत्ति का प्रसंग, जीव और कर्म का संबंप, लीध को आगम विम्ब प्रवृस का निरूपण २३४-२४० के भेद, अजीव द्रव्य, बघ का स्वरूप भोर मेद, मोक्ष ११ वाकल्प का समगा, बन्ध व मोक्ष-कारण, मिथ्याल्व के भेव, प्रसंगम का लक्षणा, कषायों के भेद, योग, पाहतों दवारा अमूरदृष्टि पंग में प्रसिद्ध रेवती रानी की कथा २४०-२४५ माने गये लोक का स्वरूप, लोक फो वातवालय के प्राचार मानने की माईन्मान्यता का मगर्थन, जैन गाधुनों पर १२ वा कल्प अन्य मतावलम्बिपों द्वारा चार दोषों ( स्नान न कारना. सम्यक्त्व के वर्धक गण. जैन शासन के वर्षका गुण, आषमन न करना, नग्न रहना मोर खन्ने होकर मोजन उपग्रहन अंग का निरूपण और इसमें प्रसिक जिनेन्द्रभक्त करना) का आरोपण किया जाना और उन दोषों का की कथा २४६-२४९ युक्ति आगम प्रमाण से समाधान किया जाना व ऋण १३-१४ या कल्प मुंबन का प्रयोजन २०४-२१० रितिकारमा अंग का स्वरूप मंच की पद्धि के विषय
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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