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________________ यशस्तिलका अह स्वकीयप्रतापमुद्रितसमस्तसमुद्रः कुवलयानन्दमचन्द्र अन्य विनविकासोद्वेल्लरका के लिएएसबोक्लासलालशे गगनकाननप्रबोध प्रघा विघातकीप्रसपेशल स्थिणि प्रचेतःपुरकान्तारस्मेरता जिह्यतप्रसून संवहनुम्बरे त्रिदि बोधानान्तराल निलीमोन्मोलल्लाङ्गलोलतान्तकान्तरुचि पश्चिमालस्थल विलासिनो शिखण्डमण्डनोत्तंस विकसत्काश्मीरकुसुमकैसरासराला भोगभङ्गे अहतिपणानुसारिदिवसलक्ष्मी पिण्डाल तकरसप्रसा घितबरणमार्गनिर्गमद्युति सरकरानुखजनपराम्यरचरचमूखतावणमणिविमानप्रभापटलतुलने त्रिपुरदाहा जित धूर्जदिनिदि कलांचा एलान मरनोनकट सुरामुरसमरमेदिनीवरिपुरप्रकाशिनि विनकृत्करकृपाणपासित वैर्याच्चताचऋवालानुकूले मातृमण्डलको डाकोलाल कुण्डका सिनिके तिनि रविरतुरगवंग खरखुरोवस्तारतमस्तकमनःशिलाघूलिलीले घडीशताण्डवाडम्ब रामसर सुर प्रसारितमुवर्णमण्डपणि और जिससे स्वर्गलोक में घण्टानाद -आदि होते हैं। जिसके केवलज्ञान कल्याणक की पूजा के लिए देवों ने अनेक दिशाओं में गमन किया है। जिनको अनेक इन्द्रादिकों द्वारा समवसरण में विशेष श्रद्धापूर्वक अनुष्टुप् आदि छन्दों से स्तुति की गई है। जो निश्चलता को प्राप्त हुए हैं, अर्थात् — विहार करने के बाद योग निरोध हो जाने से जो निश्चल हुए हैं। जो समस्त लोकों के परमगुरु हो जाते हैं, अर्थात् बर्हन्त अवस्था के बाद जिन्होंने सिद्धपदवी प्राप्त की हैं एवं जो स्तुति करने में उत्कण्ठा रखनेवाले इन्द्रादिकों के लिए लक्ष्मी उत्पन्न करनेवाले हैं, अर्थात् जिनका निर्वाण कल्याणक इन्द्रादिकों द्वारा विशेष उल्लासपूर्वक मनाया गया है ऐसे वे जिनेन्द्र प्रभु आप लोगों के लिए स्वर्ग श्री व मुक्तिश्री की प्राप्ति के लिए होवें ॥ २ ॥ प्रताप की विशेषता से चारों समुद्रों को चिह्नित करनेवाले व कुवलय ( पृथिनी मण्डल ) को उस प्रकार आनन्दित करनेवाले जिसप्रकार चन्द्रमा कुवलयों चन्द्र विकासी कमलों को आनन्दित ( प्रफुल्लित ) करता है, ऐसे हैं मारिदत्त महाराज ! अन्य अवसर पर में भी ( यशोधर महाराज), पैदल मार्ग से ही तब अमृतमति महादेवी के महल द्वार पर प्राप्त हुआ, जब ऐसा संध्या कालीन लालिमा का तेज प्रकट हो रहा था । जिसकी उत्कट अभिलाषा, आकाशरूपी वन के विकास से कम्पित होते हुए अशोक वृक्ष के पल्लबों के प्रफुल्लित करने में है । जिसकी कान्ति आकाशरूपी वन के उद्योत के लिए शीघ्र गमनशील धातकी पुष्पां सरीखी मनोज्ञ है । जो ऐसे पलाश पुष्पों के समूह सरीखा मनोश है, जो कि वहण नगर के वन के विकास में प्रगुण ( प्रचुर ) हैं । जिसकी कान्ति, स्वर्ग के बगीचे के मध्य में स्थित हुई व चिकसित होने वाली जल पिप्पली ( जल पोपल ) के पुष्पों सरीखी ( लालिमायुक्त ) मनोहर है। जिसकी रचना, अस्ताचल के स्थल पर स्थित हुई कमनीय कामिनियों के मस्तक को अलङ्कृत करने वाले मुकुट पर विकसित होते हुए केसर पुष्पों की पराग के प्रचुर विस्तार सरीखी है। जिसकी कान्ति सूर्य के मार्ग का अनुसरण करनेवाली दिवस लक्ष्मी के frustre लाक्षारस से सुशोभित हुए चरणों के मार्ग-निर्गम सरीखी है । जिसकी तुलना सूर्य के पीछे गमन करने में तत्पर हुई देवसेना द्वारा निर्मित हुए पद्मरागमणि के विमानों की कान्ति-समूह से होती है। जिसके समीप उन दानव नगरों (त्रिपुर-पुरों ) की सदृदाता है, जो कि त्रिपुर नाम के दैत्य विशेष को भस्मीभूत करने में अप्रतिहत व्यापारशाली श्री महादेव के ललाट पर स्थित हुईं तृतीय नेत्र की अग्नि द्वारा जल रहे थे । जो देव और दानवों की युद्धभूमि पर बहते हुए रुधिरपूर सरीखा प्रकाशशील है । जो सूर्य के हस्त पर वर्तमान तलवार द्वारा मारे हुए दैत्यों की मृतकाग्नि के मण्डल- सरीखा हैं। जिसकी तुलना मातुमण्डल की क्रीड़ा के रुधिर कुण्ड की कान्ति के साथ होती है। जिसमें उस अस्ताचल पर्वत के शिखर को मैनशिल सम्बन्धी धूलि की शोभा वर्तमान है, जो कि सूर्य रथ के घोड़ों की वेगशाली तोतर टापों से उठी हुई थी। जिसमें श्री महादेव के ताण्डव नृत्य के आडम्बर ( विस्तार ) के अवसर १. अविशालंकार 1
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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