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श्रीसमन्तभद्राय नम: श्रीमत्सोमदेवसूरि-विरचित
यशस्तिलकचम्पूमहाकाव्यम्
उत्तरखण्डम् यशस्तिलकदीपिका-नाम भाषाटीकासमेतम्
चतुर्थ आश्वास श्रीमानस्ति समस्तवस्तुषिषयध्यापारपारंगमः पारेशशेषतमः पयोषि फुप्तधीमध्ये गुणाम्भोनिधिः । कि नान्यत् भुवनप्रयस्प पतयो यस्मिन्नवाप्तोवये जायन्ते प्रतिचारका इव पुरछत्रत्रयं विश्रतः ॥ १ ॥ तयानरियषि जातकल्मषमुषि प्रादुर्भवज्योतिजि लोक्यभि वत्तयात्रककुभि स्वर्गिस्मृतानुष्टुभि । यस्मिन्नच्युति सर्वलोकमति स्सोपोन्मुखश्रीकृति श्रेपोभाजनतां जनः परमगात्स स्ताच्छिये वो जिनः ॥ २॥
अनुवादक का मङ्गलाचरण जो हैं मोक्षमार्ग के नेता, अरु रागादि विजेता हैं। जिनके पूर्णज्ञान-दर्पण में, जग प्रतिभासित होता है। जिनने कर्म-शत्रु-विध्वंसक, धर्मतीर्थ दरवाया है।
ऐसे श्रीऋषमादि प्रभु को, शत-शत शीश झुकाया है ।।१।। जो अन्तरङ्ग लक्ष्मी-अनन्तज्ञानादि च वहिन लक्ष्मी--समवसरणादि विभूति से अलंकृत हैं जो समस्त जीवादि तलों के प्रत्यक्ष जानने में पारगामी हैं, जो समस्त अज्ञानसमुद्र से दूरवर्ती हैं, पूर्वजन्म में बांधी हुई तीर्थकर प्रकृति के कारण जो सार्थक नामवाले (तीर्थकर ) हैं, जो अनन्तज्ञानादि गुणरूप समुद्र के मध्य में वर्तमान हैं तथा केवलज्ञानादि लक्ष्मी के प्राप्त होने पर जिनके मस्तक पर तीन लोक के स्वामी ( इन्द्र व धरणेन्द्रादि ) तीन छय धारण करते हुए सेवकों-सरीखे आचरण करते हैं, ऐसे ऋषभदेव तीर्थङ्कर भगवान् आप लोगों को स्वर्गधी व मुक्तिश्री की प्राप्ति के लिए होवें ॥१॥
जिनके धर्मसाम्राज्य में समस्त लोक निश्चय से शाश्वत कल्याण परम्परा को प्राप्त हुआ। जिनको शुक्लव्यानरूण ज्योति समस्त कर्मों को समूल नष्ट करनेवाली है। जो पाप कर्मों को नष्ट करनेवाले हुए हैं अर्थात् ---जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय इन चार धातिया कर्मों का तथा नामकर्म की सोलहप्रकृतियों का क्षय किया है। जिनकी विशुद्ध आत्मा में केवलज्ञानरूप तेज उत्पन्न होरहा है। अर्थात् घातिया कर्मसंघात के घातने पर जिनके केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, जिससे तीन लोक में संचलन-आसनादि-कम्पन हुआ है, अर्थात् केवल ज्ञान प्रकट होने के अवसर पर इन्द्रादिकों के आसन धम्पायमान होते हैं
१. रूपक उपमालंकार ।