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________________ अष्टमबाआश्वासः ३९५ - -- "उघड्मुतः स्वयं तिष्ठत्वामुख स्थापयेग्जिनम् । पूजाक्षप भवन्नित्यं यमी वाचंयक्रियः ॥७॥ प्रस्तावना पुराफर्म स्थापमा संगिधापनम् । पूजा पूजाफलं घेति षडविघं देवसेवमम् ॥७१॥ यः श्रीजम्मपयोनिधिमनसि च ध्यायन्ति यं योगिनो येनेवं भुवनं सनापममरा यस्मै नमस्फुर्वते । यस्मात्प्रादुरभच्च तिः प्रकृतिनो यस्य प्रसादारजना यस्मिन्नष भवाथयो यतिकरस्तस्यारमे स्नापनम् ॥७२॥ योतोपलेपवपुषो न मलानुषङ्गास्त्रलोक्यज्यचरणस्म कुतः 'परोऽय: । मोक्षामृते धृतषियस्तव वर्ष कामः स्नानं ततः "कमुषकारमिदं तनोतु ॥७३॥ तथापि स्वस्य पुण्यापं प्रस्तुऽभिषषं तय । को माम सूफ्फारार्थ फलार्षी विहसोद्यमः ॥७४॥ इति प्रस्तावना) "रत्नाभिः समानुभिगता शुद्धौ भूमो भगलमयदीनगृतकपास्य । कुर्मः १२ प्रजापतिमिकेतनविमुखानि क्षितप्रसवदर्भविवभितानि ।।७५॥ द्वारा शरीर में अत्यन्त पवित्र होकर अर्थात्-सकलीकरण व अनन्यास करके श्रीमण्डप में अष्ट मङ्गल द्रव्यों (छा व चमर-आदि ) से अलंकृत हुई वेदी पर थी जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक यथाविधि विस्तारित करता हूँ॥ ६९ ।। ऐसी प्रतिज्ञा करके पूजा करनेवाला श्रावक स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुंह करके खड़ा हो और जिनबिम्ब का मुख पूर्व दिशा की ओर करके स्थापित करे एवं पूजा के समय सदा संयमो ( प्राणि-रक्षा करने वाला और इन्द्रियों को काबू में करनेवाला ) और मौन रखने वाला, अर्थात्-पूजा-मन्त्रों के उच्चारण के सिवा दूसरों से भाषण न करनेवाला होवे ।। ७० ।। देवपूजा के छह विधि-विधान है-प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजाफल ।।७।। प्रस्तावना मैं उस जिनेन्द्रदेव का अभिषेक प्रारम्भ करता है, जो लक्ष्मी के जन्म के लिए समुद्र-सरीखे हैं, जिसे योगीजन अपने मन में चिन्तवन करते हैं, जिसके द्वारा यह समस्त लोक स्वामी-युक्त है. जिसके लिए समस्त देव-समूह नमस्कार करते हैं, जिससे द्वादशाङ्ग श्रुत का प्रादुर्भाव हुआ, जिसको प्रसन्नता से मानव पुण्यशाली होते हैं और जिसमें संसार का कारण कर्म-संबंध ( राग, द्वेष व मोहादि ) नहीं है १७२।। हे प्रभो ! आपके शरीर से आगन्तुफ मल के नष्ट हो जाने से आपका मैल से कोई संबंध नहीं है, तीन लोक द्वारा पूजनीय चरण-कमलवाले आपके दधि व दुग्ध-आदि प्रमुख पदार्थ पूज्यता के पात्र पवित्र किस प्रकार हो सकते हैं। इसी प्रकार मोक्षरूपो अमृत में स्थापित को हुई बुद्धिवाले आपमें जब किसी प्रकार की वाञ्छा नहीं है तब यह अभिषेक आपका क्या उपकार कर सकता है ? ॥ ७३ ।। तथापि मैं अपने पुण्य-संचय के लिए आपका अभिषेक आरम्भ करता हूँ; क्योंकि कोन धान्य-आदि फल का इच्छुक मानव धान्य-आदि पजनों के लिए अपना प्रयत्न नष्ट करनेवाला होगा? ।। ७४ || [ इस प्रकार प्रस्तावना कर्म समाप्त हुआ ! आगे पुराकर्म कहते हैं ] २. उत्तरदिन । २. 'स्नापनकरणे योग्यतास्मापन प्रस्तावना प्रस्तावः' टिन, 'स्नाधनकरणे योग्यतास्यापनं प्रस्तावना टि० च०, ५०। ३. धिगतागन्तुकमलस्य तव । ४. दुग्धदधिप्रमुखपदार्थः। ५. पूज्यतापात्रं पवित्रः फर्म ? ।' ६. याञ्छा न । ७. अपितुन कमपि । ८. रस्नमाहितजल, कुम्ममध्ये महार वा पञ्चरनं मिप्यते, मुद्रापण । २. दर्भाग्निप्रज्यालनं। १०. गृहीत । ११. सिक्त्वा 1१२. 'ब्रह्मस्थान-पीठस्थाननमुखानि' टि ख०, 'बास्थान प्रमुखानि' टि० घा, 'प्रजापतिनिकेतनं ब्रह्मस्थानं' इति पश्निकार्या । १३, गुम्फितानि ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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