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________________ अष्टम आश्वासः ४४५ 'पलाण्डतक्षीनिम्बसुमनःपूरणाविकम् । त्यजेवाजन्म तपबहुप्राणिसमाश्रयम् ॥३०५।। दुष्पवस्य निषिसस्य जन्तुसंबन्धमिभयोः । अपीक्षितस्य च प्राशस्तसंख्यासिकारणम् ।।३०६॥ इत्यं नियतवृतिः स्यावनिच्छोऽध्यायः श्रियाः । नरो नरेषु वेवेषु मुक्तिधीसविधागमः ॥३०॥ इत्युपासकाध्यपने भोगपरिमोगपरिमाणविधिनाम द्विवस्वारिंशसमः कल्पः । क्याविषयमादेश यातव्य पथागमम् । ययापात्रं यमाकासं वाम देयं महाश्रमः ॥३०८।। आत्मनः भेयसेऽन्येषां' रत्नत्रयसमृद्धये । "स्वपरानुपहायेत्वं यस्यात्तद्दानमिप्यते ॥३०९।। में यम और नियम दो विधि कही गई हैं। अर्थात्--मोमोपभोग वस्तुओं का परिमाण दो प्रकार से किया जाता है । एक यमरूप से और दूसरे नियमरूप से । जीवनपर्यन्त त्याग करने को यम समझना चाहिए और कुछ समय के लिए त्याग करने को नियम समझना चाहिए। अर्थात्-परिमितकाल पर्यन्त त्याग को नियम जानना चाहिए ॥ ३०४ ॥ नती को प्याज-आदि जमीकन्द, केतकी के पुष्प व नीम के पुष्प तथा मूरण-वगैरह जमीकन्द जन्म पर्यन्त के लिए छोड़ देने चाहिए, क्योंकि ये पदार्थ उसी प्रकार के बहुत से जीवों के निवासवाले हैं ।। ३०५ ।। ऐसे भोजन का भक्षण भोगपरिभोगपरिमाणन्नत की क्षति का कारण है, जो कच्चा या जला हुआ है, जो व्रतीद्वारा त्याग किया हुआ है, जो जन्तुओं से छू गया है, या जिसमें जन्तु गिरकर मर गए हों और जो दृष्टिगोचर नहीं हुआ ।। ३०६ ॥ उक्त प्रकार से भोगोपभोग वस्तुओं का परिमाण करनेवाला धावक मनुष्य इच्छक न होता हुआ भी मनुष्यों की लक्ष्मी ( चक्रवर्ती-बिभूति ) व देवों को लक्ष्मी ( इन्द्र-विभूति ) का आश्रय होकर मुक्तिश्री को निकट' में प्राप्त करनेवाला हो जाता है ॥ ३०७॥ इसप्रकार उपासकाध्ययन में भोगोपभोगपरिमाण नामक बयालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। दान का स्वरूप गृहस्थाश्रमी को विधि ( पड़गाहना-जादि), देश, द्रव्य, आगम, पात्र एवं काल के अनुसार दान देना चाहिए ।। ३०८ ।। जो अपने कल्याण के लिए है और मुनि-आदि सत्पात्रों की रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र ) की वृद्धि के लिए होता है, इसप्रकार जो दाता और पात्र के उपकार के लिये १. Hथा चाह पूज्यपाद:-"मधु मास मधञ्च सदा परिहर्तव्यं सघातानिवृत्तचेतसा। केलक्यर्जुनपृष्पादौनि गृङ्ग बेरमूलकादौनि बहुजन्सुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशाहाणि परिहर्तव्यानि बहुधाताल्पफलत्वात् । पानवाहनाभरणादिष्वैताचदेवेष्टमतोयदनिष्टमित्यनिष्ठाभिवर्तनं कर्तव्य कालनियमन यावज्जीव वा यथाशक्ति ।'-सधि०७-२१ । २. तपा चाह रात्रकार:--'सनित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषत्रदुःपश्वाहाराः' -मोक्षशास्त्र ७-३५।। *. तथा चोतं-'यथाद्रव्यं यथादेशं पथापा यथापथमा यथाविधानसम्पत्या वाने देयं तदपिनाम् ||१३|| प्रवोक्सार पु.१८७ । ३. महामुनीनां । ४. तथा चाह सूबकार:--'अनुग्रहार्य स्वस्यासिभर्गो दानं ।' –मांशशास्त्र ७-३८ । 'स्वपरोपकारोऽनुग्रहः । 'स्वोपकारः पुण्यसंचयः, परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिद्धिः । सर्वार्थसिद्धि भाष्यकारः पूज्यणदः प० २१९ । तथा चोक्तं श्रीमद विद्यानन्दिस्वामिना'अनुग्रहार्थमित्येतद्विशेषणमुदीरितं । तेन स्वांसदानादि निषिद्ध परमापकृत् ।।२॥' 'तेन च विशेषणत स्वमांसाविदार्न स्वापायकारणं परम्यावधनिबंधनं च प्रतिक्षिप्लमालश्मते, तस्य स्वपरयोः परमापकारहेतुत्वात् ।'-वत्वार्थश्लोकबातिक पु० ४७२ ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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