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________________ पशस्तिलफचम्पूकाव्ये दातृपात्रविधिवष्यविशेषाद्विशिष्यते । यथा रचनाघनोदगोणं तोयं भूमिप्तमाघपम् ॥३१०॥ वातानुरागसंपन्त: पात्रं रत्नत्रयोचितम् । सरकार: स्याद्रिषिष्ट्रव्यं तप:स्वाध्यायसाधकम् ।।३११।। परलोकधिया कश्चित्कविहिकचेतसा । योषियमनसा कश्चित्सता वित्तव्ययस्त्रिया ।।३१२।। परलोकहिकोषित्येष्यस्ति येषां न पीः समा। धर्मः कार्य यशश्चेति लेपामेतत्त्रयं कुतः ॥३१३।। अभयाहारभषयअतभेदामचयिषम् । वानं मनीषिभिः प्रोक्तं भक्तिशक्तिसमाश्रयम् ।।३१४।। दिया जाता है, उसे हो दान कहा जाता है ॥ ३०९ ॥ जैसे मेघों से बरमा हुगा जल भूमि का आश्रय प्राप्त करके विशिष्ट फलदायक होता है वैसे ही दाता, पात्र, विधि और द्रव्य को विशेषता से दान में भी विशेषता होती है, अर्थात्--ऐसा दान विशेष फलदायक होता है ।। ३१० ।। दाता-आदि का स्वरूप जो पात्र के गुणों ( सम्यग्दर्शन-आदि) में अनुरक्त होकर देवे, वह दाता है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय से विभूषित है यह पात्र है। नवधा भक्ति को विधि कहते हैं और मुनियों के तप व स्वाध्याय में सहायक अन्न व शास्त्र-आदि को द्रव्य कहते हैं ॥ ३११ ॥ सज्जन दाताओं का धन-वितरण तीन प्रकार से होता है। कोई सज्जन परलोक की बुद्धि के उद्देश्य से कि परलोक में हमें स्वगंधी की प्राप्ति होगी, धन-वितरण करते हैं। कोई सज्जन ऐहिक मुख की वाञ्छा से कि इस लोक में मेरी कीति हो और जनता में सन्मान प्राम होगा, धन वितरण करते हैं एवं कोई सज्जन औचित्य ( दान व प्रिय वचनों द्वारा दूसरों के लिए सन्तोष उत्पादन करना) से युक्त अभिप्राय से दान करते हैं ।। ३१२ ।। जिनको वुद्धि न परलोक सुधारने की है और न ऐहिक कार्य की ओर है और न औचित्य की ओर है अर्थात्--जो उक्त उद्देश्यों से दान द्वारा पात्रों को सन्मानित नहीं करते, उनके लिए धर्म, लौकिक कार्य व कीति ये तीनों कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? भावार्थ--परलोक की बुद्धि के उद्देश्य से और औचित्य मनोवृत्ति से दान करने से क्रमशः धर्म व कोति प्राप्त होती है। जैसे मुनियों को दान देना-आदि, बाल-पीड़ितों या दुर्भिक्ष-पीड़ितों की सहायता करना, शिक्षालयों व औषधालयों के संचालनार्थ दान देना-आदि। इस लोक की बुद्धि से किया हुआ धन-वितरण लौकिक कार्यों में उपयोगी है। जो लोग उच्च तीनों आधारों में धन खर्च नहीं करते, वे लोकिक कार्यों में भी खाली हाथ रहते हैं और पारलौकिक सुख से भो बवित रहते हैं और न उन्हें यश भो मिलता है ।। ३१३ ।। दान के भेद विद्वानों ने चार प्रकार का दान कहा है- अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान । ये चारों दान दाता को शक्ति व श्रद्धा का आश्रय करते हैं। अर्थात्त-यदि दाता के पास धन नहीं है, तो वह देने का इच्छुक होकर के भी नहीं दे सकता और उसके पास धन होने पर भी श्रद्धा के विना उसमें दान करने १. सथा चाह श्रीमदुमास्वामी आचार्य:-"विधिद्रव्यदातुपात्रविशेषास्तविशेषः'---मोक्ष. ७-३९। २. धनाधना मेघः । ३. ओदनादि । ४. तपा चाह श्रोसमन्तभद्राचार्य:--'आहारोपयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ।।११७॥'-रन० श्रा० । तथा चाह पूज्यपादः–'त्यागो दानं । तत्त्रिविधं आहारदानमभयदान ज्ञानदानं चेति' ।- सर्वार्थ०६-२४ ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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