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________________ षष्ठ आश्वासः मातुरेव स बोषोऽयं यक्वाऽपि वस्तुनि । मतिविपर्यय पत्ते' ययेन्योर मन्चचक्षषः ।। २६३ ॥ 'शानमेकं पुनघा पत्रधा चामि तद्भवेत् । अन्यत्र केवलज्ञानात्ताप्रत्येकमनेकपा ।। २६४ ।। अधर्म मंनिर्मुकिधर्मकर्मविनिर्मितिः 1 पारित्रं तरच सागारानमारयतिसंश्यम् ॥ २६५ ।। की बुद्धि मलिन या अज्ञान-बहल रहती है, तो उसका ज्ञान वैसा व्यर्थ है जैसे उल्लू के लिए सूर्य का प्रकाश व्यर्थ होता है ।।२६शा जैसे हो दष्टि (काच कामयादित से अस्त नेयमा । मनुष्य की बुद्धि चन्द्र के विषय में विपरीत होती है, अर्थात-उसे एक के दो चन्द्र दिखाई देते हैं या शुभ्र चन्द्र नोला दिखाई देता है, उसमें उसकी चक्षु का दोष समझा जाता है, न कि चन्द्र का, वैसे ही प्रत्यक्ष-आदि प्रमाणों से वाधा-रहित वस्तु ( कचिन्नित्यानित्यात्मक जीवादि वस्तु ) में भी बुद्धि के विपरीत हो जाने में ( वस्तु को सर्वथा निस्य या सर्वथा अनित्य समझने में ) ज्ञाता का ही दोष । मिथ्यात्व कर्म का उदय ) है, न कि वस्तु का 1२६३।। [अब सम्पज्ञान के भेदों का निरूपण करते हैं-] जिसके द्वारा वाह्य व आध्यात्मिक पदार्थों में संशय, विपर्यय व अन्नध्यवसाय-रहित यथार्थता का निश्चय किया जाय उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं, वह सामान्य से एक भेद वाला है। प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है। मतिज्ञान, श्रुसज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवल ज्ञान के भेद से वह पांच प्रकार का है। केवल ज्ञान के सिवाय अन्य चार ज्ञानों में से प्रत्येक के अनेक भेद हैं। जैसे–मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं। श्रुतज्ञान अङ्ग व अङ्ग वाह्य के मेद से दो प्रकार का है। अवधिज्ञान-देशावधि, परमावधि व सर्वावधि के भेद से तीन प्रकार का है और देवावधि व परमावधि भी प्रत्येक जघन्य, मध्यम व उत्तम के भेद से तीन प्रकार का है। और देशावधि, परमावधि व सर्वावधि इन तीनों में से प्रत्येक के अनुगामी, मननुगामा, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, प्रतिपाति एवं अप्रतिपाति के भेद से आठ प्रकार का है । मनःपर्यय शान भी ऋजु व बिपुलमति के भेद से दो प्रकार का है और ये दोनों जघन्य, मध्यम व उत्तम के भेद से तीन प्रकार के हैं ।।२६४॥ [ अब सम्यग्चारित्र का स्वरूप व भेद कहते हैं--] : सम्यग्ज्ञानी के हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील ब परिग्रह रूप पापक्रियाओं के त्याग को और धार्मिक क्रियाओं (अहिंसा, सत्य', अचौर्य, ब्रह्मचर्य व परिग्रह-त्याग ) के करने को सम्यग्चारित्र कहते हैं, वह चारित्र गृहस्थों से धारण करने योग्य अणुव्रत और मुनियों से धारण करने योग्य महायत १. पन्ने । २. हीनघः चन्द्रं नीलं कृष्णादिकं पश्यति, द्वौ पोन्वा चन्द्रान् पश्यति । ३. ज्ञानकमित्यादि-ज्ञायते निश्चीयते अश्यत्पत्तिसंशयविपर्यासव्यदासिन बाह्याध्यामिक्रपदाप याथात्म्य मेन तज्ज्ञानं. एकज्ञानार्थस्य समानुगमात् । द्वेधा-प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन । पंचधा-मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलभेन । प्रत्येक मति स्तावइनेकधा-पत्रिंशत्रिशतीभेदेन । तपादि-पडिन्द्रियाणि अर्थव्यञ्जनपर्यावलक्षणपर्यायविपयरवग्रहावायधारणाभिणितानि चतुर्विशति भवन्ति । चक्षुरनिन्द्रियजितानामपरेषां चतुर्णामिन्द्रियाणां व्यञ्जनलवायपर्यायविषयाश्चत्वारोपग्रह एवमैनेपामष्टाविंशति बह्वादिभिर्द्वादशभिर्गुणिता पट्त्रिंशत्रिशती च भवति । श्रुत्तमनेकषा-अनाङ्गवाह्मभेदेन । तत्राङ्गामि आचारादीनि अङ्गवाहानि सामायिकादीनि पुनरपि पर्याय-पर्यायसमासाक्षाराक्षरसमामभेदेन विंशतिभेदं । अधिरनेकधा-देवावधि परमावधि--सर्वावधिभेदन । देशावधिपरमावी अपि प्रत्येा जपन्नमध्यमोत्तमभेदेनत्रिविषौ। देशावधित्रयं प्रत्येक यथासंभवमनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितप्रतिपाति-अप्रतिपातिभेदेनाष्टवित्रं । मनःपर्ययोऽनेकधा ऋजुविपुलमतिभदेल पुन: प्रत्येकमतो जघन्यादिभेदेन विविधौ । ४. त्यामः । ५. करणं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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