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________________ यदास्तिलकचम्पूकाव्ये कि च । अकर्ता पुमान्भोक्ता क्रियाशून्योऽप्युवासिता । नित्योऽपि जातंसंसर्गः सर्वगोऽपि वियोगभाक् ॥ ८६॥ शुद्धोऽपि बेहसंबद्धो निर्गुणोऽपि शमुध्यते । इत्यन्योन्यविरुद्धोक्तं न युक्तं कापिलं वचः ॥ ८७॥ वियापी भवेदात्मा यदि व्योमयबजसा । सुखदुःकादिसद्भावः प्रतीयेताङ्गवहिः ॥८८॥ नित्ये सदा पुंसि कर्मभिः स्वफलेरिनिः । कुतो घटेल संबन्धो यथरकापास्य रज्जुभिः २८९ ॥ घृष्यमाणाङ्गारवदन्तरङ्गस्य विशुद्धभावे कयमिदमुदाहारि कुमारिलेन विशुद्धज्ञानदेहाय frवेषीदिव्यचक्षुषे । श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ॥१०॥ कयं चेदं वचनमजम् समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेकं समस्तानि वस्तूनि यम्म स्पृशन्ति । विद्वत्सदा शुद्धिः स तिश्योऽहमात्मा ॥ ११ ॥ १५८ कथं चेयं श्रुतिः समस्त अर्थात् - प्रकृति को करनेवाली मानते हो और आत्मा को कमल पत्र की तरह निर्दोष व अकर्ता किन्तु चेतन मानते हो तब यदि आत्मा कर्ता नहीं है तो वह भोक्ता (भुजि किया का कर्ता - मोगनेवाला) कैसे हो सकता है ? जब आत्मा निष्क्रिय (क्रिया रहित ) है तो वह उदासिता ( उदासीनता युक्त ) कैसे हो सकता है ? क्योंकि क्या उदासीनता क्रिया नहीं है ? इसीप्रकार जब आत्मा नित्य ( अधिकारी नित्य ) है तब वह प्रकृति के साथ संबंध वाला कैसे हो सकता है ? एवं जब आत्मा व्यापक ( समस्त मूर्तिमान् पदार्थों के साथ सदा संयोग रखनेवाला ) है तब शरीरादि प्रकृति के साथ वियोग रखनेवाला कैसे हो सकता है ? जब आत्मा शुद्ध है तब शरीर के साथ संबंधवाला कैसे हो सकता है ? और जब यह गुण होन है तब सुख रूप कैसे हो सकता है ? ( अथवा पाठान्तर का अभिप्राय यह है कि जब आप आत्मा को शुद्ध व निर्गुण मानते हो तब वह शरीर के साथ संयोग संबंध रखनेवाला कैसे हो सकता है ? इसप्रकार परस्पर विरुद्ध सांख्य दर्शन के वचन युक्ति-संगत नहीं हैं ॥ ८६-८७ ।। यदि आत्मा वस्तुतः आकाश की तरह सर्व व्यापी है तो सुख दुःखादि का सद्भाव शरीर को सरह बाह्यप्रदेश में प्रतीत होना चाहिए । अर्थात् जैसे शरीर में सुखादि मालूम पड़ते हैं वैसे हो वाह्यदेश में भी मालूम पड़ना चाहिए परन्तु शरीर से बाल्यदेश में जत्र सुखदुःखादि प्रतीत नहीं होते तब आत्मा सर्वव्यापी कैसे हो सकती है ? ॥ ८८ ॥ जब आत्मा सदा नित्य व अमूर्तिक है तो उसका अपने सुख-दुःख रूप फलों को देनेवाले कर्मों के साथ संबंध सा कैसे घटित हो सकता है ? जैसे नित्य व अमूर्तिक आकाश का रज्जुओं ( रस्सियों ) के साथ संबंध घटित नहीं हो सकता ॥ ८५ ॥ अव ज्योतिःशास्त्रवेत्ता घूमध्वज नामके ब्राह्मण विद्वान की मान्यता का निराकरण करते हैं- जब आपण किये जानेवाले कोयले सरीखे मन को विशुद्धि नहीं मानते तो कुमारिल विद्वान् ने निम्नप्रकार आत्मबिशुद्धि के विषय में कैसे कहा ? 'उन चन्द्रकला-युक्त चन्द्रशेखर श्री शिवजी के लिए शाश्वत कल्याण को प्राप्तिनिमित्त नमस्कार हो, जो विशुद्ध ज्ञानरूपी शरीर वाले हैं व तीन वेदों का समूहरूपी दिव्य चक्षु वाले हैं ॥ ९० ॥ एवं निम्नप्रकार का वचन कैसे संगत होगा ? 'जो समस्त पदार्थों में व्याप्त हुआ एक हैं, जिसे समस्त वस्तुएँ स्पर्श नहीं करतो, जिसका स्वरूप आकाश सरोना सदा शुद्ध है, वह सिद्ध उपलब्धि वाला नित्य आत्मा में हूँ' ।। ९९ ।। एवं निम्नप्रकार के वैदिक वचन कैसे युक्ति-संगत होंगे ? यह स्पष्ट है कि शरीर सहित आत्मा के पुण्यपाप कर्मों का विनाश नहीं होता ( पुण्यपाप कर्मों का संबंध बना रहता है) और शरीर शून्य (परम सिद्ध ) रहनेवाले आत्मा को पुण्य-पाप कर्म स्पर्श नहीं करते, (नष्ट हो जाते हैं) ॥९२॥ अतः अब आत्मशुद्धि समर्थक युक्तियों १. 'समुच्यते इति ह. लि. ( क ) पाठः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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