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________________ १३६ यशस्तिलकच काव्ये सुलि बाहुबलविजृम्भितमेव अप्रः परस्तु विनोदर वनिता मपाश्रयभूमिः । वनमृगं रप्यनुस्ल सुनोयप्रभावाशेव प्राकारः परस्तु मुरस्य पांशुपाविनिवारणपरिच्छदः । सकलसपत्नव्याप्तिदर्थं न समर्थ नावतारः सव्येतरः कर एवं परिमा, परंतु बोबारि काणां विश्रामविष्टराणि । दुर्वृत्तारातिकुल निमज्जनजलाधारा खड्गधारव परिखा, परास्तु नगराङ्गानां जलकोजाधिकरणानि । समस्तक्षितिरक्षणक्षमः पराक्रम एव परिवार: परस्तु श्रीविलासाम्बरः । निजकीर्तिसुधा वर्षालितापघनं त्रिभुवनमेव विहारहम्र्म्याणि, पराणि तु राज्यलक्ष्मी चिह्नानि चतुदधिमेखला वनमनोहरा वसुंधरेव प्रियकलत्राणि, पराणि तु वंशाभिवृद्धिनिबन्धनानि धर्मक्षेत्राणि । यस्य चावाङ्गरङ्गेष्वनचरतमुक्तशरसारयर्थ विकले रिस मुखमण्डलाना महितकन्यानां नर्तक्रियासु परमेकान्तरसिकता, न पुनरितरास्यंदूषण परासु । असमसमावसरेष्वाश्चर्यशौयं परितोषितानाममरवृन्दारकाणामानन्वरतोद्यबादनेषु प्रकर्षणाता, न पुनतिरेषु शरीरायासकरेषु । त्रिविष्टपकुटीकोट रविहारिणा नरनिलिम्पाम्बरपरलॉकेन जिविजयनामामुभगस्य गीतस्य गायते नितरां स्पृहयालुता न पुनरितरस्य हृदयहरिणहरस्य । कदनवन - हैं। दूसरी जलदुर्गादि भूमियाँ तो केवल लक्ष्मियों के विशेष रूप से अधिकार द्वार हैं। जिसकी भुजाओं का सामर्थ्यं प्रसार ही, जिसकी तुलना श्रीब्रह्मा के साथ भी नहीं की जा सकती, वन ( दुर्ग की आधारभूत भित्ति ) है और दूसरा व तो क्रीड़ागजों का आश्रयस्थान मात्र है । जंगली मृगों द्वारा भी उल्लंघन करने के अयोग्य माहात्म्य वाली जिसको आज्ञा हो प्राकार (कोट) है, दूसरा दुर्ग तो नगर संबंधी धूलियों के स्पर्श-निवारण के लिये उपकरणमात्र है । जिसका दक्षिण इस्त ही विना जन्तुओं के विस्तार को नष्ट करने के निश्चय वाला है, अगला ( बेड़ा ) है और इसके सिवाय दूसरी अगंलाएं तो द्वारपालों के खेद को दूर करने के आसनमात्र है । दुराचारी शत्रु-वंशों के डूबने में जल की आधारभूत जिसकी खड्गधारा ही परिखा ( खाई ) है दूसरी परिखाएँ तो केवल नागरिक कार्मिनियों की जलकीड़ा के स्थानमात्र हैं। जिसका समस्त पृथिवी के परिपालन करने में समर्थ पराक्रम ही परिवार ( कुटुम्ब ) है और दूसरा परिवार तो लक्ष्मी के बिलास का विस्तारमात्र है । अपनी कीर्तिरूणी सुवा से उज्वलोकृत शरीरवाला तीन लोक ही जिसका क्रीडागृह है । और दूसरे क्रीडागृह तो राज्यलक्ष्मी के चिह्नमात्र हैं । जिसकी चार समुद्ररूपो मेखला ( करधोनी ) वाली ब वनों मनोज्ञ ऐसी पृथिवी ही प्यारी स्त्रियाँ हैं और दूसरी प्यारी स्त्रियों तो वंश ( कुल व पक्षान्तर में बांस ) की चारों ओर से बुद्धि में कारणीभूत धर्मक्षेत्र ( दान आदि पुण्य कर्मों का स्थान ) हैं, अर्थात् — जैसे वंश - बसों की वृद्धि होती है ! खेलों में जो सुदत्त महाराज शत्रु कबन्धों ( शिर-रहित शरीर घड़ों ) को, जिनके मुखमण्डल संग्रामाज्जगरूपी नाटधशालाओं में निरन्तर फेंके हुए बाणों की मूसलधार वेगशाली दृष्टि से विशेषरूप से खण्डित किये गये हैं, नृत्यचेष्टाओं में ही केवल विशेषरूप से रसिक ( अनुरक्त हृदय ) हैं और दूसरी कामिनियों की नृत्यक्रियाओं में, जो कि धन संबंधी दोष ( विनाश ) उत्पन्न करने में तत्पर हैं, रसिक — आसक्त नहीं हैं । जो विपम संग्राम कालों में आश्चर्यजनक वीरता से आनन्दित किये गए देवों के मध्य प्रधान देवों के मानन्दजनक वाजों की ध्वनि के सुनने में विशेषरूप से तृष्णालु है किन्तु शरीर को कष्ट करनेवाले दूसरे तत्त बितरा, धन व सुपिररूप वाजों के वादन में तृष्णाशील नहीं है। जो सुदत्त महाराज तीन लोकरूपी गृह के मध्य विहार करनेवाले भूमिगोचरी मानव, देवता व विद्याधरों के समूह से अपनी विजयश्री के कारण जीते हुए राजाओं के नामाङ्कन से प्रीति २. निजकीति सुघाषवलितं त्रिभुवनमेव' इति ( क ) पाठः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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