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________________ ३०८ यशस्तिलचम्पूकाव्ये ताहिंसा कुतो यत्र बल्लारम्भपरिग्रहः । ववके व कुशीले च नरे नास्ति बाता ।। ६२ ।। शोकसंतापसन्द 'परिदेवनदुः लघोः । भवन्स्वपरयोर्जन्तुरसदेद्याय जायते ॥ ६३ ॥ haratमा माषो पस्योपजायते । जीवो जायेत चारित्रमोहस्यासी समाश्रयः ॥ ६४ ॥ मंत्री प्रमोदका वच्यमाण्यस्य्यानि यथाक्रमम् । सत्वं गुणाधिके श्लिष्टे निर्गुणेऽपि च भावयेत् ।। ६५ ।। कापेन मनसा वाचापरे सर्वत्र वेहिनि । अदुःखनननी वृत्तिमंत्री मंत्रीविवो भता ।। ६६ ।। तोगुणाधिके पुंसि प्रयाभयनिर्भरः । जायमानो मनोरागः प्रमोवो विदुषां मतः ।। ६७ ।। वीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुष्यं करुणात्मनाम् । हर्षामर्षोक्शिता वृत्ति मध्यस्थ्यं निर्गुणारमनि ।। ६८ ।। इत्थं प्रयतमानस्य गृहस्थस्यापि देहिनः । करस्यो जायते स्वर्गे नास्य बूरे त ।। ६९ ।। पुण्यं तेजोमयं प्रातुः प्राहुः पाएं तमोमयम् । तत्पापं पुंसि कि तिष्ठेद्दयावधितिमालिनि ॥ ७० ॥ सा क्रिया कागि नास्तीह पत्या हिंसा न विद्यते। विशिष्येते परं भाषावत्र मुल्यानुषङ्गको ॥ ७१ ॥ गुची ( गुरवेल) और सुरण आदि कन्द भी भक्षण नहीं करना चाहिए ॥ ६० ॥ पुगने ( प्रायः जीर्ण हुए ) मूंग, उड़द और चना आदि को दलने के बाद ही खाना चाहिए। बिना दले हुए मूंग व सारा उड़द आदि नहीं खाना चाहिए और अखण्डित ( पूरी ) समस्त फलियां रोधी हुई या बिना रांधी हुई ( कच्ची ) नहीं खानी चाहिए, क्योंकि उनमें सजीवों का वास होता है। उन्हें खोलकर शोधने के बाद ही संघकर ही या दिना खानी चाहिए ॥ ६१ ॥ जहाँ बहुत आरम्भ और बहुत परिनह है, वहाँ अहिंसा कैसे रह सकती है ? तथा और दुराचारी मानव में दयालुता नहीं होती ।। ६२ ।। जो मानव स्वयं शोक करता है तथा दूसरों को शोक उत्पन्न करने में कारण होता है। स्वयं सन्ताप करता है तथा दूसरों को सन्तापित करता है, स्वयं रोता है और दूसरों को रुलाता है और जो स्वयं दुःखी होता है और दूसरों को दुःखी करता है, उसे असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है ।। ६२ ।। जिसके कषाय के उदय से अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम होते हैं, वह प्राणी चारियमोहनीय कर्म का बंध करता है || ६४ ॥ मंत्री प्रमोद व कारुण्यादि भावनाओं का स्वरूप समस्त जीवों में मैत्री भाव का चितवन करना चाहिए । जो ज्ञानादि गुणों में विशिष्ट हों, उनके प्रति प्रमोद भाव का चिन्तवन करना चाहिए। दुःख जीवों के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और गुणों से हीन ( असभ्य व उद्धत ) पुरुषों के प्रति माध्यस्य भाव का चितवन करना चाहिए ॥ ६५ ॥ मैत्रीभावना के ज्ञाताओं ने दूसरे समस्त प्राणियों के प्रति मन, वचन व काय से दुःख उत्पन्न न करने की इच्छा- युक्त वृत्ति को मैत्री भावना स्वीकार की है ॥ ६६ ॥ तप व ज्ञानादि गुणों से विशिष्ट पुरुष को देखकर जो विनय के आधार से पूर्ण हार्दिक प्रेम उमड़ता है, उसे विद्वानों ने 'प्रमोद' कहा है ।। ६७ ।। ( दुःख) पुरुषों को दरिद्रता व रोगादि पीड़ा के दूर करने को बुद्धि को 'काय' कहते हैं और गुणों से शून्य मिथ्यादृष्टि असभ्यों के प्रति रागद्वेष न करने की वृत्ति को 'माध्यस्थ्य' कहते हैं ॥ ६८ ॥ इस प्रकार वनशील पुरुष को गृहस्थ हो करके भी स्वर्ग सुख हाथ में स्थित रहता है और उसे मोक्ष भी दूर नहीं है ।। ६९ ।। शास्त्रकारों ने पुष्य को प्रकाशरूप और पाप को अन्धकार रूप कहा है, अतः जिसके हृदय में दयारूपी सूर्य का प्रकाश हो रहा है, उसमें क्या अन्धकार रूप पाप ठहर सकता है ? ॥ ७० ॥ लोक में ऐसी कोई किया नहीं है, जिसमें हिंसा नहीं होती, किन्तु हिंसा और अहिंसा में केवल मुख्य व गोगभावों की विशे as: किमले सदा महत् पापं यदाsकस्मात् प्रसङ्गेन १. रोदन 1 २. व्यक्ता । ३. गोधः । ४. मुख्यत्वेन कदाचिद् वषो भवति तदा स्वयं पापं स्यादित्यर्थः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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