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________________ सान माश्वासः अनन्नपि भवत्पापी निमपि न पापभाक् । अभियान विशोषेण यथा धीवरकर्षको ॥ ७२ ॥ कस्यमित्संनिविष्टस्य 'बारात्मातरमम्सरा' । वपुःस्पर्शाविशेऽपि शेमुषी तु विशिष्यते ।। ७३ ।। सवुक्तम्परिणाममेव कारणमाहुः पुष्पपापयोः कुबालाः । तस्मात्पुण्योपच्या पापापचयश्च सुविधपः ॥ ७४ ।। -आत्मानुशासन, श्लोक २३ । वपुषो वचसो पापि शुभाशुभसमाधया। क्रिया वित्ताविन्स्येयं तवत्र प्रयतो भवेत् ।। ७५ ॥ क्रियान्यत्र क्रमेण स्यास्कियत्स्वैव च बस्तुषु । जगत्त्रयादपि स्फारा वितं तु मणतः त्रिया ॥ ७६ ।। तथा लोकोक्ति: एकस्मिन्मनसः कोणे पुंसामुत्साहशालिनाम् । अनायासेन समान्ति भुवनानि चतुवंश ॥ ७ ॥ षता है। अर्थात्-जच निर्दयी मानव द्वारा मुख्यता से संकल्पपूर्वक वध किया जाता है तब उसे महान पापबन्ध होता है और जब उसके द्वारा प्रसङ्ग से ( कृषि-आदि जीवनोपाय के उद्देश्य से ) बध किया जाता है, तब उसे स्वल्प पाप होता है । भावार्थ-पं० आशाघर ने भी कहा है, कि गृहस्थाश्रम कृषि-आदि आरंभ के बिना नहीं होता और आरंभ हिंसा विना नहीं होता, अतः मानव को संकल्पी हिंसा के त्याग करने में प्रयत्नशील होना चाहिए ।। ७ ।। संकल्प में भेद होने से अथवा मानसिक अभिप्राय की विशेषता से घीवर मछलियों का घात न करता हुआ भी पापी है और किसान मारते हुए भी पापी नहीं है । अर्थात्-यह 'मैं कुटुम्ब के पालन के लिए धान्य पेदा करूँगा' इस विशुद्ध चित्तवृत्ति पूर्वक कृषि में प्रवृत्त होता है, जब कि धीवर बहुत मछलियां मारूंगा, इस दुरभिप्राय से नदी में जाल डालता है ।। ७२ ।। कोई एक मनुष्य, जिसके एक पार्श्वभाग में उसकी पत्नी वैठी है और दूसरे पावभाग में उसकी माता बैठी हुई है और वह उन दोनों के बीच में बैठा है, यद्यपि वह दोनों के शरीर का स्पर्श कर रहा है, उस अङ्ग-स्पर्श में कोई भेद · ही है, परन्तु उसकी मानसिक भावना में बड़ा अन्तर है। अर्थात्-वह माता के स्पर्श-काल में विशुद्ध चित्तवृत्ति के कारण पुण्यवान है और परलो के स्पर्शकाल में सक्लिष्ट चित्तवृत्ति के कारण पापो-कामी है ।। ७३ ।। ___निस्सन्देह प्रवीण पुरुषों ने परिणामों को ही पुण्य-पाप का कारण कहा है, अनः शुभ परिणामों से पुण्य का संचय करते हुए पाप की हामि करनी चाहिए ।। ७४ ।। मन के निमित्त से हो काय व वचन की क्रिया भी शुभ और अशुभ का आश्रय करती है। मन को शक्ति अचिन्तनीय है, इसलिए मन को नियन्त्रित ( काबू ) व शुद्ध करने में प्रयत्नशील होना चाहिए ।। ७५ ।। शरीर व वचन की क्रिया तो क्रमिक (कम से) होती हैं और कुछ प्रतिनियत ( सीमित ) स्थूल पदार्थों में ही होती है, अर्थात्-कुछ ही पदार्थों को अपना विषय बनाती है परन्तु मन को क्रिया तो क्षणमर में तीन लोक से भी महान होती है। अर्थात्-मन एक क्षण में तीन लोक के विषम में सोच सकता है। अत: विवेकी मन को नियन्त्रित करने में सावधान होवे अन्यथा महान् पाप बन्ध होगा ।। ७६ ॥ इस विषय में एक लोकोक्ति भी है उद्यमशील पुरुषों के मन के एक कोने में विना परिश्रम के चौदह लोक समा जाते हैं, अर्थात्-मन की १. एकस्मिन् पार्श्वे दारान एकत्र मातरं एसयोमध्ये उपविष्टस्य स्पर्श विशेषो न परन्तु मनसि वियोषोऽस्ति । २. मन्ये । *. ह. लि. क., ख०, ग०, १०, प्रतियों है संकलित-सम्पादक । ३. काये वयसि च ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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