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________________ षध आश्वासः १८१ 'माभितशत्रुसंतानतमत्पाटनपट्टयोपडमण्डलायन्हमहासेनो नाम नरपतिः । तस्यायं नमस्तसाम्राज्यधुरोबारबारेय. भजोपावी तान्न ' काय बनतेयः साक्षातुसुमधमुः सनरामयोपन सविध्याः सकलजगतापवाहार प्रवृत्तियतकमा. संसारसंमन्यावनुजपर्यः सोदर्म: १२ । स एक१३ संप्रति स्वभावतो मृतुमानसरसप्रसरोऽपि दुरुपदेशावसरतामोपयःप्रवात् इव । 'संजालशक्तिसंपुटकोढरावगाहः कठिनतानीतमतिरस्मसमागतिशलाकासावितसूत्रप्रवेगामार्गो निकामं संपचमानधर्मसंसर्गों भवितमिष्यतीति । तदनु राजा सबहुमानं धर्ममतपमोस्पन्सपल्लवायमानेन “ सकलसंसारव्यसमवनावानलप्रभापटलकान्तिला नखमयूखास रोत्सापित धवणसमोपसरस्वतीप्रवाहेण सीमन्तप्रारत "सरः संजातजलेजर कुश्मलविम्मिमा ३ करयुगलेनो दण्डमण्डल से विशेष तेजस्वी-प्रतापी है, जो कि लक्ष्मी के विनाश को मर्यादा को आश्रित हुए ( अस्त होने वाली लक्ष्मी वाले ) शत्रु-समूह रूपी वृक्षों के उन्मूलन में समर्थ है।' थे मारिदत्त महाराज उक्त राजा के समस्त साम्राज्य-भार के वहन करने में समर्थ पुत्र है और जो प्रजा पर उपद्रव करने में उत्सुक दुष्ट लोगरूपी सो के विनाश करने में गरुड़ ही हैं एवं मानों-साक्षाद कामदेव ही हैं। तथा सकल जगत की व्यवहार-प्रवृत्ति में स्कन्ध (सहायता देनेवाले संसार-संबंध से सम्भाधम की मोक्ष' ) हमारी माता सुगमावली रानी) के लघुभ्राता ( हमारे छोटे मामा) है। ये मारिदत्त महाराज इस समय स्वभाव से कोमल मानसिक रस के विस्तार वाले भी हैं परन्तु इन्हें दुष्ट लोगों के उपदेश का अवसर प्राप्त हुआ है, इससे ये वैसे कठिन बुद्धिवाले हो गये थे जैसे सोप-संपुट के मध्य में प्रवेश ताम्रपर्णी नाम की नदी का जल-प्रवाह कठिनता से ग्रहण करने के लिये मशक्य होता है। अर्थात-जैसे सीप-संपट का मध्यवर्ती जल मद होने पर भी संपूट के उद्धाटन विना ग्रहण नहीं किया जा सकता वैसे ये भी पूर्व में दुरूपदेश के प्राप्त होने से कठिन बुद्धि-बाले थे। परन्तु अब मणि-सरीखे इन्होंने हमारी समागम बेला रुपी शलाका (सई) से सत्र ( शास्त्र व पक्षान्तर में सन्त में प्रवेश-मार्ग प्राप्त कर लिया है इससे ये विशेषरूप से धर्म-संसर्ग प्राप्त करने के इच्छुक हैं।' निष्कर्ष-अतः अब आपको पात्रता-प्राप्त किये हुए इनके लिए उपदेश शास्त्र कहना चाहिये । तदनन्तर ऐसे हस्त-युगल से मुकुटोकृत मस्तकवाले मारिदत्त राजा ने प्रस्तुत आचार्य के लिए विशेष सन्मान पूर्वक नमस्कार किया, जो ( हस्त ) धर्मरूपो वृक्ष का प्रथम उत्पन्न हुआ नवीन पल्लव-सरीखा है" 1 जिसको कान्ति सांसारिक समस्त व्यसन ( मद्यपान-आदि दुःख) रूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल के प्रभापटल-सी है। मानों-जिसने विस्तृत नख-किरणों से कानों के समीप सरस्वती नदी का प्रवाह ही प्रसारित किया है और जो केश-प्रान्त रूपी तड़ाग में उत्पन्न हए कमलों की अष १. मर्यादा। २. श्रिताः ये पत्रमः। ३. नृपस्य । ४. सूनुः पुत्रोऽयम् । ५ में ८. उत्सुका ये क्षुद्रास्त एन सस्तेिषां विनामकरण गढ़ः। ९. कामदेवः । १०. मातुः । ११-१२. लधुचाता पश्चाउजन्मपर्यायः, अर्थात्-गृहस्था पेक्षयाध्ययोर्माललघुभ्रातल्यर्थः । १३. अयं मारिदत्तः । १४. दुष्टलोकोपदेशानामयमरी यस्य सः। १५, कापिनदीनाम । १६. मथा शुषल्युदरमा पानीयं मुद्दपि संपुटोघाटनं विना गृहीतु न शभ्यते, लद्वदयं दुरुपदेदोन कठिनमुद्धिः पूर्व । १७. इयानी हु जम्मदारमतवेनेव दालाका तया आसादितमूत्रप्रवेशमार्गः । अर्थात्-अधुना श्रीमद्भिरूपदेगगास्न कथनीय मिनिभावः । १८. ईदृशेन हस्तयुगलेन । १९. प्रसारितकर्णसमीप । ३२०. प्रान्त एव तडाग । २१. कमल । २२. हस्तयुग्मेन । 1. सपकालंकारः। 2, रूपकालंकारः। 3. सपकालंकारः। 1. उपमालंकारः। 5. रूपक व उपमालंकारः || ६. उपमालंकारः। 7. रूपक व उपमालंकारः। 8. उत्प्रेक्षालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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