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________________ चतुर्थं आश्वासः यावरसमर्थ वपुषद्धतायां पावच पाणिद्वयमेति बन्यम् । सावामुनोनामशने प्रवृत्तिरित्याशयेन स्थितभोजनास्ते ।।१०९॥ बालापकोटायपि यत्र स निष्किचनापं परमं न तिष्ठत् । मुमुक्षवस्ता कथं नु कुपति चुकूलाभिनवल्फलेषु ।।११०॥ शौचं निकाम मुनिपुंगघानां कमण्डलोः संश्रयणात्समस्ति । में चायौ हिनविता मितिमा इस दिन ! १५॥ वन्ति जमास्तमिहाप्तमेते रागावयो या न सन्ति घोषाः । ___मद्यादिशब्दोऽपि च पत्र पुष्ट: शिष्टः स निन्दोत कथं नु धर्मः ॥११२।। परेषु योगेषु मनीषयान्धः प्रीति वधात्यास्मपरिग्रहेषु । तयामि देवः स यदि प्रसक्तमतग्जगद्देवमयं समस्तम् ।।११३॥ लज्जा न सज्जा कुमालं न शील श्रुतं न पूतं न वरः प्रचारः । मधेन मन्दीकृप्तमानसानां विषेकनाशान्य पिशाचभावः ।।११४॥ आतङ्कशोफामयकेतनस्य जीवस्म दुःखानभवाश्रमस्य । देहस्य को नाम कृतेऽस्य मांसं सचेतनोऽद्याक्षणभङ्गुरस्य ।।११५।। उक्तं च-- तिलसर्पगमानं पो मांसमानाति मानवः । स श्वनान्न निवर्तेत यावच्चन्द्रदिवाकरो ॥११६॥ जैमिनी, शाक्य व शंकर ) और छह दर्शन ( जैन, जेमिनी, माक्य, शङ्कर, सांख्य व चार्वाक दर्शन ) बर्तमान हैं, इस प्रकार सज्जन पुरुप कहते हैं ॥ १०८ ॥ [ हे माता! जो तूने कहा है कि 'उद्धाः पशूनां सदृशं नसन्ते' अर्थात्-दिगम्बर साधु खड़े होकर पशु-सरीखे भोजन करते हैं। उस कद-भालोचना का उत्तर यह है ] कि 'जब तक दिगम्बर साधुओं का शरीर ऊपर खड़े होने में समर्थ है एवं जब तक दोनों हाथ परस्पर में मिलते हैं तभी तक मुनियों को भोजन में प्रवृत्ति होती है इस अभिप्राय से धे खड़े होकर भोजन करनेवाले हैं ।।१०९।। हे माता ! जिस दिगम्बर शासन में जब केश के अग्नभाग को नोंक बराबर भी सूक्ष्म परिग्रह रखने पर उत्कृष्ट निष्परिग्रहता नहीं रह सकती तब उस दिगम्बर शासन में मुमुक्षु साधु लोग दुपट्टा, मृगचर्म व दृटा की छाल रखने में किस प्रकार बुद्धि करेंगे ? ।। ११० ॥ हे माता ! [ जो तूने कहा है कि दिगम्बर साघु 'शोचगुणेन हीनाः' अर्थात्-शौच गुण से होन हैं बह भी मिथ्या है, क्योंकि दिगम्बर मुनिश्रेष्ठ कमण्डलु ग्रहण करते हैं, इससे उनमें विशेष रूप से शौच गुण ( जल द्वारा गुदा-प्रक्षालन ) है, क्योंकि जब अंगुलि सर्प द्वारा हसी जाती है तब अंगुलि ही काटी जाती है, उस समय कोई पुरुष नाक नहीं काटता । अर्थात्---जो अपवित्र अङ्ग है वही जल द्वारा प्रक्षालन किया जाता है ॥१११॥ ये जैन लोग संमार मार में उसो पुरुष श्रेष्ठ को आR ( ईश्वर ) कहते हैं. जिसमें राम. देष बमोह-आदि १८ दोप नहीं हैं। जिस धर्म में मद्यपान आदि का शब्द सुनना भी भोजन-त्याग के निमित्त है, वह घम विद्वानों द्वारा किस प्रकार निन्दा योग्य हो सकता है। अपि तु नहीं हो सकता ॥११२॥ जो देव, जरासन्ध व कंस आदि शत्रुसम्बन्धों में बुद्धि से क्रोधान्ध है एवं सत्यभामा व रुक्मिणी-आदि स्त्रियों में प्रोति धारण करता है, तथापि वह हरि व हर-आदि देव ( ईश्वर ) है तब तो 'समस्त संसार देवमय है' यह प्रसङ्ग उत्पन्न हुआ समनना चाहिए। अर्थात् जब शत्रुओं से द्वेप करनेवाले व स्त्रियों में अनुग़ग करनेवाले को ईश्वर माना जायगा तव तो सभी ईश्वर हो जायगे विना ईश्वर कोई नहीं होगा ॥११३|| जिन रुद्रादिकों के चित्त, मद्यपान द्वारा जड़ हो चुके हैं, उनको न लज्जा, न इच्छानुसार उद्यम, न निपुणता न ब्रह्मचर्य, न पवित्र शास्त्र ज्ञान और न प्रशस्त प्रवृत्ति ही है [ यदि उनमें उक्त गुण नहीं है तो क्या है ?] प्रत्युत उनमें प्रमाद दोष के कारण पिशाचता ही है ॥११४॥ हे माता! जीव के ऐरो शरीर के लिए, जो कि सद्यः प्राण हर व्याधि, पश्चाताप व सामान्य रोगों का निवास है तथा दुःखों के उदय का स्थान है एवं जो क्षणभङ्गुर है, कौन बुद्धिमान् पुरुष मांस-भक्षण करेगा ? अपि तु नहीं करेगा ।।११५।। शास्त्रकारों ने कहा है कि जो पुरुष तिल व सरसों बराबर मांस भक्षण करता है, वह नरक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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