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________________ यतिलकचम्पुकाव्ये माम्ना तव शकुन्तवातप्रमोसमामुपहन्तुमापतेन, सिन्धुररुषिरावणहरिकण्ठकेशकान्तिभिष्टिवीधितिभिवातंसजालानीव विक्ष प्रतन्यता, मयूरापाङ्गपाण्डरवंशनरीप्तिप्रसरंराशामुखेषु मृगमन्थानिय प्रसारयता. भाविभवापारपटलरिव लता. प्रसानवलस्तिरोहितप्तनुना, शनिनेव मधीमाषाङ्गारकालकायेन, पलिशावेशापिणा तेनान्तकेनेवावलोपितः। पक्षाणामयापि पक्षतिप्रदेश एवासावितोदयत्वातिबोनरयत्वाच्च रोबस्योरन्यतस्मिन्नपि विषये विहतमसमर्थः, परिगा पञ्जरे कृतकारागारकियः, प्रदप्रचसाप्रधयश्स, तज्जनकेन पौराङ्गनापाङ्गपताकिलशालायां विशालायां पुरि यशोमतिमहारामायोपायनीकृतः, समवलोक्य च ता संसारसारावनों तक्षिसर्विव सुन्वर मन्दिरं च यावाविर्भूतभवसंभालन:, संवेयं नगरी, तवेष भवनं, ता एवं कोलोथराः, सयेषा वनभुः, स एव सरप्तीसारे विलासाचलः, । संवासो यनिता, स एव तमयस्ते चंष मे बाधा ल मेक ए जि Hindi-En: 11 इति क्षणमुपजातान्तर्वाष्पोदन्तः, पुनरन्तःपुरकशोवरोणां निवासतरस्कन्षावरोहावकारियोत्सनादेशगिरिशिखररिव पयोपरैःप्रमबबनवल्लरीगहनरिव बाहूपगूहनः सरोजसरप्राणरिव मुखाघ्राणः शयनकुञ्जकलिचूलरिव कुन्तलमालविनोद्यमानः, पुत्र इब प्रियोपचारेषु सहवर इव विहारकर्मसु बीपोत्सवादी गृहमिव पर्वप्रासाव इव मण्डनविधिषु शियय इव मर्तनक्रियालु दन्तकान्ति से दिशाओं के अग्नभागों पर मृग-बन्धनों का आरोपण करता हुआ-सा प्रतीत हो रहा था । जिसका शरीर, लत्ताओंणो के पत्रों से, जो ऐसे प्रतीत होते थे—मानों-भविष्य जन्म-सम्बन्धी अज्ञानान्धकार के समूह ही हैं, आच्छादित था। जिसका शरीर कज्जल, उड़द के कण व कोयला-सरोखा काला था एवं जो पलिश' देशा ( जहां पर स्थित होकर हिरण मारे जाते हैं। का आश्रय करनेवाला था, अतः मानों-यमराज ही है । फिर मुझे ( मोर पर्याय के धारक यशोधर को), जिसके पिच्छ अभी भी पिच्छों के मूल-प्रदेश में ही उदित हुए थे एवं जिसका वेग अति दीन था, इसीलिए आकाश व पृथिवी में से किसी भी स्थान पर पर्यटन करने के लिए असमर्थ था। उस गजशल्यक ने पकड़कर पिञ्जरे में वन्दीकृत किया । अर्थात्-जेलखाने में प्रविष्ट किया । इसके बाद उत्पन्न हुए पिच्छसमूह से अलंकृत हए मुझ को उक्त गजशल्यक' के पिता 'मतङ्गजव' ने उज्जयिनी नगरी में, जिसके गृह नगर की कामिनियों के कटाक्ष प्रान्तों द्वारा ध्वजाओं से संयुक्त किये गए हैं, यशोमति महाराज के लिए भेंट कर दिया। सांसारिक सार बस्तुओं की भूमि उस उज्जयिनो को और स्वभावतः मनोज्ञ राजमहल को देखकर मुझे भाग्योदय से जाति स्मरण प्रकट हुआ। फिर मुझे निम्नप्रकार जातिस्मरण के साथ क्षण भर में नेत्रों के मध्य आंसुओं के पतन को प्रवृत्ति उत्पन्न हुई। वही यह उज्जयिनी नगरी है। वही यह 'त्रिभुवन तिलक' नाग वा राजमहल है ! बे ही क्रीड़ा भूमियां हैं। वहीं यह वनभूमि है । वही सरोवर के समीपवर्ती क्रीडापर्वत है। वहीं यह अमृतमति महादेवी पत्नी है और वहीं यह यशोमति नाम का पुत्र है एवं वे ही मेरे कुटुम्ब वर्ग हैं, परन्तु आश्चर्य है कि केवल अकेला मैं हो (यशोधर हो) अन्यादृश (विलक्षण-मोर की पर्यायधारक) हो गया हूँ" ||११|| फिर मैं अन्तःपुर की स्त्रियों व मन कामिनियों के उत्सङ्ग देशों (गादियों) से, जो कि निवास वृक्ष के तना से उतरने के स्थानों की तरह थे, क्रीड़ा किया जा रहा था और उनके पर्वत-शिखर सरीखे कुचकलशों से क्रीड़ा किया जा रहा था। उनकी भुजाओं के आलिङ्गनों से, जो कि उनकी कोहा योग्य उपवन-सम्बन्धी १. 'पत्र स्थित्वा मृया हन्यन्ते स प्रदेशः पलिश उच्यते' सं.दी० प. १८० से संकलिन-सम्पादक २, समुच्चयोपमालंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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