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________________ पञ्चम आश्वासः १६७ ततः प्रान्सामापारेवमलजालास्से पन्चापि लोकपाला इव से सुबत्तभगवन्तं प्रणम्य अगाः पाण्डतनया इव सदर्शनपूर्वकाणि त्रिवारपि दुरापाणि भावकवतानि । प्रमुफ्तलोकायतमधर्मा अधिरसमासजन्मावरमवावास्तिशर्मा अपकर्मापि धर्मावघोषात्परिपूर्णशापावधि पूर्वविद्यासंबोहासाबसंपादितार खरबिहारः समाचरितसहसरामचर्यव्यवहारः प्रथिचचार लेवरनियंश देशम् । ___सस्नु चावामप्यहो मारदत्तमहाराण. सुदत्तभगवद्भाषिमपुरावृत्तवृतान्तभवनातीवजानियाभूतपरिपाहायचेदानी खल्लारपोरग्निस्पृष्टमीजवनाविर्भावः कर्मणामित्यानन्दनायोदोर्णनिगरणाचण्यधयुषावपि चूष्याम्यन्तरस्थितः # शोमतिमहाराजः शम्योत्सङ्गमागसायाः कुसुमावलोमहादेव्याः पावधित्वकौशल दर्शयितं शयनासन्नशरकुरप्लीमभ्यावलंकर्माणकायमेकं सायकमादाय विव्याध । ततश्न विधानुः कल्मषशेषमनुविभावयिषोशात्परित्यक्तकुक्कुटपापयोरशुनौ लालाद्वारे कृमिजालसमाकुले एभूव तई ज्या अपर इव निरनिलये गर्भ पुनरावमोजन्म । आवाभ्यामवाप्तापाना का सा फिल यशोमतिमहोपालप्रणयपादपप्रयमकन्दली फुसुमावली महादेवी रहसि नेत्र विलासविरले शरपापापापड़ गाजवयं हरितरत्नरुची कुचाप्ने । से मरे । फिर कुत्ता च मोर हुए। मर्थात्-यशोधर का जीव मरसार मोर हुआ और उसकी माता चन्द्रमति का जोव मरकर कुत्ता हुई। इसके बाद सर्प व सेही हुए। अर्थात्-यशोधर का जीव ( मार ) मरकर सेही हमा और उसको माता चन्द्रमति का जोब (कुता) मरकर गर्म हुआ। फिर वे दोनों भरकर मकर च मच्छ हुए। अर्थान् -यशोधर का जीव रोही रोहिताक्ष नामका मच्छ हुआ और उसकी माता चन्द्रमति का जीव । सर्प ) शिशमार नाम का मकर हुआ। फिर वे दोनों बकरी व उसका पति बकरा हुए। बर्थात-चन्द्रमति का जीव (शिशमार नाम का मकर ) मरकर बड़ो बकरी हुआ और यशोधर का जीव ( रोहिताक्ष नाम का मच्छ) मरकार उसका पति बकरा हुआ। इसके बाद दोनों पकता व भैसा हुए । अर्थात् पशोधर का जीव ( बकरा) पुनः अपनी स्त्री (बकरी) से बकरा हुआ, और चन्द्रमति का जीव ( बकरी) मरकर भैंसा हुई। फिर दोनों मरकर मुर्गा-मुर्गी हुए ॥ १२८ ।। अथानन्सर उक्त प्रवचन सुनने से उक्त पांचों पुरुषों ने भी ( चण्डकर्मा आदि ने ), जिनके हृदय से समस्त पापसमूह नम हो गया है ऐसे होते हुए और जो दिक्पालों या राजाओं सरीखे हैं, पूज्य श्रो मुदत्ताचार्य को नमस्कार करके पाण्डवा-सरोखे देवताओं को भी दुर्लभ भावकों के व्रत धारण किये। फिर नास्तिक मत के सिद्धान्त छोड़ने वाले चण्डकर्मा ने भी, जिसे शीघ्र हो विद्याधरों की पद-प्राप्ति का सुख प्राप्त हो रहा है, जैनवर्म का ज्ञान होने से जिसकी शाप की अवधि पूर्ण हो चुकी है । जिसने पूर्व की विद्याबर-विद्याओं की अंगो प्राप्त हो जाने से आकाश में विहार करना नार कर लिया है एवं जिसने साथियों के साथ आश्चर्यजनक व्यवहार प्रकट किया है, ऐसा होकर विद्याधरों के निवास वाले स्थान में [ आकाश मार्ग से | प्रस्थान किया। तदनन्तर अहो मारिदत्त महाराज ! ऐसे हम दोनों ( मुर्गा-मुर्गी ) को भी, जो कि मानों-इसलिा आनन्द जनक शब्दों से उत्कट गलेयाले हुए थे कि श्री मुदत्त भगवान् द्वाग काहे हुए पूर्वजन्म संबंधी वृत्तान्त के सुनने से विशेष उत्पन्न हुए वैराग्य की उन्नत स्वीकारता से हम दोनों । मुर्गा-मुर्गी ) में अब भी निश्चय से वैसी कर्मों की उत्पत्ति नहीं होगी जैसे अग्नि से छुआ हुआ बीज अङ्कुर उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता और जिनका शरीर दुष्या (तम्यू ) में भी नहीं था, (जो यशामति महाराज के तम्बू से भी दूर थे ), दूष्या (तम्बू अथवा पापप्रति) के मध्य में स्थित हुए यशोमति महाराज ने शय्या के मध्य में प्राप्त हुई कुसुमावली महादेवो को शब्दवेधिता की कुशलता दिखाने के लिए शय्या के समीपवर्ती तूणीर (वाणों का भाता ) के मध्य से भेदने में समर्थ एक वाण लेकर उससे हम दोनों को भेद दिया { विदीर्ण कर दिया)1 पश्चात् मुर्गा-मुर्गी की पर्याय छोड़नेवाले हम दोनों का जन्म शेष पाप का भोग कराने के इच्छुक विधाता ( भाग्य ! के वश से कुसुमावली
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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