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________________ चतुर्थं आश्वासः पति च मधुमासनिवर्ण महादोषस्तवा मयमेतन्महषिभिययाहुतम 'न' मांसभक्षणे दोषो न म न च मयने । प्रवृत्तिश्व भृशमा लियतेनन महाफलम् ।।' इति १५८॥ कब हव्यकव्यविधिषु प्रयन्धन तद्ग्रहणम् । तदार "तित्राहियविरहिमलफालेन च । दत्तन . पाटे मिति: १५२ । द्वी मासो मत्स्यमांसेन जोन्मासात हारिन च । और श्रंणाय चतरः शानन पञ्च चे ॥१६॥ पग्मासोश्यागमांसेन पार्षतेन हि मप्त है । अष्टावेशस्य मसिन शेरवंण नबंव तु ।।११।। बश मासास्तु तृप्यन्ति बरामहिपाभिः । शर्मस्प मापन मासानेकादशं तु ॥१२॥ संवत्सरं नु गरयेन पयसा वायसेन मा । बाझुणसस्य मसिन तृप्तिाश्यावाविकी ॥१६॥' नि । राजा-(स्वगतम् ।) ऐश्वर्ष मेकं तिमिरं नराणामेचंविधो बन्धुगणो द्वितीयम् । कि नाम पापं न करोतु जन्तुर्मदन मोहेन च निविचारः ।।१६४|| पियां मनोकरीविलासरापातरम्पश्न विलासिनीनामा प्रारितान्तःकरणो रमतां भवारयामेष विशत्यवश्यम् ||१६५।। बलाबमोभिविषवराकः प्रायेण जानापि मोहितात्मा। त्योः पुरोवारिविहारभाजा वन्यः करीबास्परमापदां स्यात् ।।१६६।। ॥१७। हे पुत्र ! यदि मद्यपान व मारा-भक्षण में महान दार है गाय महगियों में निम्न प्रकार बचा। केरी कहा? 'मांस-भक्षण में पाग नहीं है एवं मद्य-गान व कामवन में भी पाप नहा है, क्योंकि प्रागिरां की मद्यान आदि में प्रवृत्ति ही होती है । परन्तु मद्यपान व भास-क्षिा के त्याग की महान फल होता है ।।१५।। हे पुत्र ! और किस प्रकार से देवकार्य व पितृकायं विधानों में शास्त्र प्रमाण से मांस-ग्रहण वर्तमान है। उक्त बात चा निरूपण-"तिलो, धान्य, जी, बड़द, पानी और मृलोक साथ मांस को विधिपूर्वक दन मानवों के पूर्व न सन्तुष्ट होते हैं ।। १५९ ॥ मछली के मांस ने दो महीनों तक हरिण-मांस से तीन महीनों तक और भेड़ व मांस से चार महीने तक एवं शकुनि । पक्षीविशेष ) के मांस में पांच महीने तक पिला-आदि पूर्वज तृप्त होते हैं ॥१६०|| निश्चय से बकरे के मांस से छह माह तक पापंत ( मगविशेग ) के मांस से सात माह तक और कस्तूरी मृग के मांस से आठ महीनों लक तथा सामग के मांस से नो महोने तक पितरगण ( पूर्वज ) तृप्त होत है ।। १६१ ॥ शूकर च भंसा के मांस मे तो दश महीनों तक एवं खरगोमात्र कक्षा के मांग से ग्यारह महीनों तक पितृगणा तृप्त हति है ।। १६२ ।। गाय के दूध अथवा उसकी स्वीर में एक वर्ष तक पितृगण तृप्त होते है एवं गण्डक-मांस से पूर्वजों की बारह वर्ष तबा होने वाली तृप्ति होती है ।। १६६ ।।' ___ उक्त बात को सुनकर यशोधर महाराज अपने मन में निम्नप्रकार सोची है-ऐश्वयं ( राज्यादि वैभव ), मानबों का पहिला अन्धकार है। इसी प्रकार माता-पिता-आदि लवादाला बन्धुवर्ग दूसरा अन्धकार है । अतः ऐश्वर्य के गर्व से ब इसप्रकार के बन्धुवर्ग के मोह से बिवेवागून्य हुआ प्राणी कौन सा पाप नहीं करता' ? ||१६४। लक्ष्मी के होने पर हृदय में मद उतान्न करनेवाले प्रथम प्रारम्भ में रभगोक प्रतीत हुए कमनीय कामिनियों के विलासों ( नेत्र शोभाओं ) द्वारा वञ्चित मनवाला यह प्राणी निश्चय से दुष्ट स्वभाववाली संसाररूपी अटवा में प्रवेश करता है ।।१६५|| इस इन विषयों के कारण अज्ञान-युक्त आत्मावाला विचारा यह प्राणी प्रायः करके जानता हुआ भी हट से उम्सप्रकार मृत्यु भाग) में विहार करनाला आत्तियों का स्थान होता है, जिसप्रकार जंगली हाथो मृत्यु-नगरी कपी गज-बन्धनी । हाथी पकड़ने के लिए बनाया हुआ गड्ढा ) में विहार करनेवालो आपतियों का स्थान होता है ॥१६॥ १. पपासंस्पाक्षेपाल कारः। २. हपकालंकारः। ३. 'वारी तु गजबन्दनो' इत्यमरः । ४. रूपकदृष्टान्ताले शारः । १०
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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