SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलकधम्पूकाव्ये दितिसुतशत्रुकलबपरित्राणचरित्रेणेव राजिमब्रह्माप्तनस्खलनसंभावनया सर्वतस्तदष्टाम्भसंभमाविव च संकोचोदम्मत्पुटप्रकाण्ञ स्थलमलिनवणे, अलिपात्रषावणीसमागमाविव मन्दागिरिशिखरजवनिकामिवितसर्षानवसरेऽपि घनघसृणाणिससुरमुन्वरोकपोलकविनि वितप्यमानतपनीयसलिकाकृतिमनोहरे भुवनान्तरप्रपाणकर्मणि पुनर्वर्शनादरादिव कमलिनीफुलकुमालप्रणामाम्नलिकारके तमोरातिमण्डले, पुनरावृत्तिभयाप्तदवतरणपषभुदीक्षितुमिय बिनविर्षभरावकाशशरोहिणि महीगहनानि रितपति बरजरच्चिकुरनिकुरम्यानुफारिणि तिमिरनिफरे, बौवरोपरागनिरस्तान्तःकरणेनापरगिरिशिखरान्तरबिहारिणा मुनिकुमारनिकामेन करघापलादिव परिमुषितमहलतरपाटलिम्नि पुनर्मुहूर्तमानमतिपुराणपिलपनलोलातुल्यतामनुशील्य झणायुपशान्तवास समस्तसंप्यारागसेजसि, सुरनरोसंभवरेखाचिकान्तेषु च समन्ततो वियत्पर्यन्सेषु, बहुलीभबन्सोधियव च योषितामलकधूपधूमेषु, वलयितास्विधावतंसकुवलयेषु, स्खलितवेगास्वियं कृष्णागुपिरितकर्णपालीषु, से श्रीनारायण की पत्नी ( लक्ष्मी ) के संरक्षण के लिए मानों स्थल कमल समूह की पत्र-श्रेणी संकुचित होरही थी । अथवा मानों-वृद्धता के कार-माहेन हो रहे हा कारकीराको उद्देश्य से ही समस्त दिशाओं में उनको थामने के लिए ( वृद्ध होने के कारण कहीं गिर न जाबें) इस प्रकार का आदर करने के कारण से ही मानों स्थल कमल समूह को पत्र-श्रेणी संकुचित हो रही यो। इसीप्रकार जब सूर्य इसप्रकार का हो रहा था। अस्ताचल की शिखररूपो जवनिका ( पर्दा) द्वारा जिसने समस्त लोक को अनवसर ( अप्रस्ताव ) सूचित किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता था-मानों विशेष मात्रा में वारुणी-समागम ( मद्यपान पक्षान्तर में पश्चिम दिशा का आश्रय ) करने से ही उसने समस्त लोक को अनवसर सूचित किया था। इसीप्रकार जिसको कान्ति प्रचुर केसर रस से अध्यक्त लाल किये हुए सुर-सुन्दरियों ( देवियों ) के गालों जैसी थी । इसी प्रकार जो अग्निमें तपाई हुई सुवर्णमयो कड़ाही को आकृति सरीखा मनोज्ञ था। जिसका प्रस्थान कर्म अपर विदेहक्षेत्र में हो रहा था और 'पुत्तदर्शन हो', इस आदरसे ही मानों-कमलिनियोंके वन की अवखिली कलियाँ ही जिसके लिए प्रणामाजलि करने वाली थी। इसी प्रकार जव अन्धकार-समूह ऐसे वृक्षों के वनों में प्रविष्ट होचुका था, जो कि नीची पृथिवी के अवकाश प्रदेशों में उत्पन्न हो रहे थे। इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था--मानों-'श्वी सूर्य पुनः आवेगा' इस भय से उसके आगमन-मार्ग को बार-बार या छिर-छिप करके देखने के लिए हो मानों-यह वृक्षों के वनों में प्रविष्ट हुआ था। इसी प्रकार जो कुछ शुभ्र केश-समूह की सदृशता धारण कर रहा था। प्रकार जब ऐसा समस्त संध्याकालीन लालिमा का तेज, अल्पकाल में अत्यन्त जरा ( वृद्धावस्था) से जीर्णहए बन्दर की मख-सोभा को सदशता का अभ्यास करके क्षण भर में नष्ट तारुण्यशाली(मन्द ते तेजवाला) हो रहा था । इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-जिसकी प्रचुर लालिगा, ऐसे मुनिकुमार-समूह द्वारा हस्त की चपलता से हो चुराई गई थी, जिसका मन गेरुआ रक्तवस्त्र की रक्तता में तत्पर ( भ्रान्ति प्राप्त ) है और जो अस्ताचल की शिखरों के मध्य भागों पर विहार करनेवाला है, इसी कारण से मन्द तेजवाला हुआ है। इसी प्रकार जब निम्नप्रकार की घटनाएं घट रही थी तब मैं अमृतमति महादेवों के महलद्वार पर आया। ___ जय सर्वत्र आकाश के प्रान्त भाग गङ्गा-यमुना के सङ्गम की आवली को शांभा-सरी मनोहर हो रहे थे। अर्थात् कुछ दिन शेष होने के कारण जव आकाश के प्रान्त माग उज्ज्वल व कृष्ण हो रहे थे। जब ऐसी अन्धकार लहरीरूपी समुद्र-लहरियाँ, उसप्रकार प्रचुरतर होकर सुशोभित हो रही थी जिसप्रकार कमनीय कामिनियों के केशपाश सम्बन्धी धूप के धुआं प्रचुरतर होते हुए शाभापमान होते हैं। जो, वेष्टन को प्राप्त १. उत्प्रेक्षालंकारः। २. उत्प्रेक्षालंकारः। ३. उत्प्रेक्षालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy